________________
३१.१०१] ३१. दसरहपव्वजानिच्छयविहाणं
२५३ एत्थन्तरम्मि मुच्छा, राया गन्तूण तत्थ पडिबुद्धो । नज्जइ आलेक्खगओ, अणिमिसनयणो पलोएइ ॥ ९४ ॥ गन्तण निययजेणणी, आउच्छह राहवो कयपणामो । अम्मो। बच्चामि अहं, दूरपवासं खमेज्जासु ॥ ९५ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, सहसा तो मुच्छिऊण पडिबुद्धा । भणइ सुयं रोवन्ती, पुत्तय! किं मे परिच्चयसि ? ॥ ९६ ॥ कह कह वि अणाहाए, लद्धो सि मणोरहेहि बहुएहिं । होहिसि पुत्ताऽऽलम्बो, पारोहो चेव साहाए ॥ ९७॥ . भरहस्स मही दिन्ना, ताएणं केगईवरनिमित्तं । सन्तेण मए नेच्छइ, एस कुमारो महिं भोत्त ॥ ९८ ॥ दिक्खाभिमुहो राया, पुत्तय ! दूरं तुम पि वञ्चिहिसि । पइ-पुत्तविरहिया इह, कं सरणमहं पवज्जामि ॥ ९९॥ विञ्झगिरिमत्थए वा, मलए वा सायरस्स वाऽऽसन्ने । काऊण पइट्टाणं, तुज्झ फुडं आगमिस्से हैं ॥ १०० ॥ जणणीऍ सिरपणाम, काऊणं सेसमाइवम्गस्स । पुणरवि य नरवरिन्द, पणमइ रामो गमणसज्जो ॥ १०१॥ आपुच्छिया य सबे, पुरोहिया-ऽमच्च-बन्धवा सुहडा । रह गय-तुरङ्गमा वि य, पलोइया निद्धदिट्ठीए ॥ १०२ ॥ चाउबण्णं च जणं, आपुच्छेऊण निम्गओ रामो । वइदेही वि य ससुरं, पणसइ परमेण विणएणं ॥ १०३ ॥ सवाण सासुयाणं, काऊणं चलणवन्दणं सीया । सहियायणं च निययं, आपुच्छिय निग्गया एत्तो ॥ १०४ ॥ गन्तूण समाढत्तं, रामं दट्टण लक्खणो रुट्टो । तारण अयसबहुलं, कह एयं पत्थियं कर्ज ? ॥ १०५॥ एत्थ नरिन्दाण जए, परिवाडोआगयं हवइ रजं । विवरीयं चिय रइयं, ताएण अदीहपेहीणं ॥ १०६ ॥ रामस्स को गुणाणं, अन्तं पावेइ धीरगरुयस्स? । लोभेण जस्स रहियं, चित्तं चिय मुणिवरस्सेव ॥ १०७॥ अहवा रज्जधुरधर, सबं फेडेमि अज्ज भरहस्स । ठावेमि कुलाणीए, पुहइवई आसणे रामं ॥ १०८ ॥
एएण किं व मज्झं, हवइ वियारेण ववसिएणऽजं? । नवरं पुण तच्चत्थं, ताओ जेद्यो य जाणन्ति ।। १०९॥ आये। (९३) तब राजा वहाँ मूर्छित हो गया। होशमें आने पर वह चित्रमें अंकितकी भाँति स्तब्ध-सा दिखाई देता था। अपलक नेत्रोंसे वह देखता था। (९४)
अपनी माताके पास जाकर और प्रणाम करके रामने अनुज्ञा माँगों कि, माताजी! मैं दूरके प्रवास पर जाता हूँ, अतः आप मुझे क्षमा करें। (९५) ऐसा कथन सुनकर वह एकदम मूर्छित हो गई। जगने पर रोती हुई वह पुत्रसे कहने लगी कि, हे पुत्र ! क्या मेरा परित्याग तुम करते हो ? (९६) बहुतसे मनोरथोंके बाद किसी तरह अनाथ मैंने तुम्हें प्राप्त किया है। हे पुत्र ! शाखाके लिए तनेकी भाँति तुम मेरे लिए अवलम्बन रूप हो । (९७) कैकेईके वरके कारण तुम्हारे पिताने भरतको पृथ्वी दी और मेरे रहते हुए भी यह कुमार पृथ्वीको भोगना नहीं चाहता । (९८) हे पुत्र! राजा दीक्षाभिमुख हैं और तुम दूर जाओगे। पति और पुत्रसे विरहित मैं किसकी शरणमें जाऊँगी ? (९९) रामने कहा कि विन्ध्यगिरिके शिखर पर, मलय पर्वत पर और सागरके समीप निवास करके मैं अवश्य ही तुम्हारे पास आऊँगा । (१००) जानेके लिए तैयार रामने अपनी माता तथा दूसरे मातृवर्गको प्रणाम करके पुनः राजाको वन्दन किया। (१०१) उन्होंने पुरोहित, अमात्य, बन्धुजन एवं सुभटोंको अनुमति ली तथा रथ, हाथी एवं घोड़ोंको स्निग्ध दृष्टिसे देखा । (१०२) चतुवर्णके लोगोंकी आज्ञा लेकर राम निकल पड़े। सीताने भी अपने श्वसुरको अत्यन्त आदरके साथ प्रणाम किया। (१०३) सभी सासोंके चरणों में वन्दन करके तथा अपनी सखियोंकी अनुमति लेकर सीता.भी वहाँ से निकली । (१०४) जानेके लिए उद्युक्त रामको देखकर लक्ष्मण रुष्ट हो गया कि पिताने अयशसे व्याप्त ऐसा कार्य क्यों किया है ? (१०५) इस जगत्में परिपाटोके अनुसार राजाओंको राज्य मिलता है। अदीर्घदर्शी पिताने विपरीत ही किया है। (१०६) मुनिवरकी भाँति जिसका लोभसे रहित चित्त है ऐसे धीर एवं गम्भीर रामके गुणोंका अन्त कौन पा सकता है ? (१०७) अथवा आज मैं राज्यको धुराको धारण करनेवाले भरतका सब कुछ विनष्ट कर डालता हूँ और कुलपरम्परासे प्राप्त आसन पर रामको बिठाता हूँ । (१०८) अथवा आज मेरे ऐसे विचार करनेसे क्या होगा? वस्तुतः सच बात तो सिर्फ पिता और बड़े भाई ही जानते हैं। (१०४) क्रोधको
१. मुलं-प्रत्य। २. जगणि-प्रत्यः। ३. अहकाए-प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org