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पउमचरियं
[३१.७८
नाव च्चिय एस कहा, बट्टइ परिसाणुरञ्जणी ताव । पत्तो भरहकुमारो, संवेगमणो पिउसगासं ॥ ७८ ।। भणिओ य दसरहेणं, वच्छ! तुम होहि रजसाहारो । अहयं पुण निस्सङ्गो, जिणवरदिक्खं पवजामि ॥ ७९ ॥ सो भणइ नत्थि कज, रजेण महं करेमि पवज । मा तिबदुक्खपउरे, ताय! भमिस्सामि संसारे ॥ ८० ॥ अणुभवसु पुत्त ! सोक्खं, सारं माणुस्सयस्स जम्मस्स । ता पच्छिमम्मि काले, जिणवरदिक्खं करेजासि ॥ ८१ ॥ पुणरवि एव पवुत्तो, भरहो कि ताय मोहसि अकज्जे ? । न य बाल-विद्ध-तरुणं, मच्च पडिवालई कोई ।। ८२ ॥ गेहासमे वि धम्मो, पुत्त! महागुणयरो समस्खाओ । तम्हा गिहिधम्मरओ. होहि तुम सयलरजवई ॥ ८३ ।। जइ लहइ मुत्तिसोक्खं, पुरिसो गिधम्मसंठिओ सन्तो। तो कीस मुञ्चसि तुम, गेहं संसारपरिभीओ? ॥ ८४ ॥ मोत्तण सयणवम्गं, धण-धन्नं मायरं च पियरं च । सुह-दुक्खं वेयन्तो. एगागी हिण्डइ जीवो ॥ ८५ ॥ सुणिऊण पुत्तवयणं, परितुट्टो दसरहो भणइ एवं । साहु त्ति साहु अहियं, पडिबुद्धो भवियसददूलो ॥ ८६ ॥ तह वि तुमे मह बयणं, पुत्तय! कायवयं अविमणेणं । निसुणेहि कहिज्जन्तं. भूयत्थं सारसम्भावं ॥ ८७ ॥ सारत्थतोसिएणं, संगामे जो वरो मए दिन्नो । सो अज तुज्झ पुत्तय ! जणणीए मग्गिओ इहई ।। ८८ ॥ रजे ठवेहि पुत्तं, भणिओ है केगईऍ देवीए । तो अणुवालेहि तुम. सयलसमत्थं इमं वसुहं ॥ ८९ ॥ पउमो वि तं कुमार, हत्थे घेत्तण भणइ नेहेणं । निक्कण्टयमणुकूलं, करेहि रज सुचिरकालं ॥ ९० ॥ तायस्स विमलकित्ती, करेहि परिवालणं च जणणीए । भरहेण य पडिभणिओ, न य तुज्झ वइक्कम काहं ॥ ९१ ॥ अडविनईसु गिरीसु य, तत्थाऽऽवासं करेमि एयन्ते । जह मे न मुणइ कोई. कुणसु य रज सुचिरकालं ॥ ९२ ।। भणिऊण वयणमेयं, पणमिय पिउपायपङ्कए सिरसा । रामो वरगयगामी, विणिग्गओ रायपरिसाओ ॥ ९३ ॥
जिस समय परिषद्का अनुरंजन करनेवाली यह कथा हो रही थी उसी समय विरक्त मनवाला भरतकुमार पिताके पास आ पहुँचा । (७८) दशरथने उसे कहा कि, हे वत्स! तुम राज्यका आधार बनो। मैं तो निस्संग होकर जिनवरकी दीक्षामें प्रबजित हूँगा । (७९) उसने कहा कि मुझे राज्यसे कोई प्रयोजन नहीं है। मैं प्रव्रज्या लूँगा। हे तात ! तीन दुःखोंसे युक्त संसारमें मैं भ्रमण नहीं करूँगा । (८०) दशरथने कहा, हे पुत्र! मनुष्यजन्मके साररूप सुखका तुम अनुभव करो। उत्तरावस्थामें जिनवरकी दीक्षा लेना। (-१) इस पर भरतने पुनः कहा कि, हे तात! आप अकार्यमें क्यों मोह पैदा करते हैं ? मृत्यु, बाल, वृद्ध या तरुण किसीकी प्रतीक्षा नहीं करती। (२) राजाने कहा कि, हे पुत्र ! गृहस्थाश्रमके लिये भी अत्यन्त गुणकर धर्म कहा गया है। अतः गृहधर्ममें रत होकर तुम सम्पूर्ण राज्यके स्वामी बनो । (८३) इस पर भरतने कहा कि यदि गृहधर्ममें स्थित हो करके भी पुरुष मुक्तिसुख प्राप्त कर सकता है तो फिर संसारसे डरकर आप गृहका त्याग क्यों करते हो ? (८४) स्वजनसमूह, धन धान्य तथा माता एवं पिताको छोड़कर जीव सुख-दुःखका अनुभव करता हुआ एकाकी परिभ्रमण करता है। (८५)
पुत्रका ऐसा कहना सुनकर परितुष्ट दशरथने कहा कि भव्यजनोंमें सिंहके समान तुम प्रतिबुद्ध हुए हो, यह उत्तम है-और भी अधिक उत्तम है। (८६) फिर भी, हे पुत्र! खिन्न हुए बिना तुम्हें मेरा कहना करना चाहिए। सत्य एवं सारपूर्ण जो कुछ मैं कहता हूँ वह तुम सुनो। (८७) हे पुत्र ! संग्राममें सारथिपनसे संतुष्ट हो मैंने जो वर दिया था वह आज तुम्हारी माताने मांग लिया है। (८) देवी कैकेईने मुझसे कहा है कि राज्य पर मेरे पुत्र भरतको स्थापित करो। अतः तुम इस सारी पृथ्वीका पालन करो (८९) रामने भी उस कुमार भरतको हाथसे ग्रहण करके स्नेहपूर्वक कहा कि तुम चिरकाल पर्यन्त निष्कण्टक और इच्छानुसार राज्य करो। (९०) निर्मल कीर्तिवाले हे भरत ! तुम पिता एवं माताके वचनका पालन करो। इसके प्रत्युत्तरमें भरतने कहा कि मैं तुम्हारा उल्लंघन नहीं करूंगा। (९१) जंगलों में, नदियों पर तथा पर्वतोंके ऊपर एकान्तमें मैं निवास करूँगा, जिससे मुझे कोई पहचान न सकेगा। तुम चिरकाल तक राज्य करो। (९२) ऐसा वचन कहकर तथा पिताके चरणकमलोंमें सिरसे प्रणाम करके उत्तम गजके समान गमन करनेवाले राम राजपरिषद्मेंसे बाहर
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