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________________ २५१ ३१.७७] ३१. दसरह्पव्वजानिच्छविहाः एक्कोऽत्थ एस जीवो, दुहपायवसंकुले भवारण्णे । भमइ च्चिय मोहन्धो, पुणरवि तत्थेव तत्थेव ॥ ६२ ।। तो सबकलाकुसला, भरहं नाऊण तत्थ पडिबुद्धं । सोगसमुत्थयहियया, परिचिन्तह केगई देवी ।। ६३ ॥ भरतस्य राज्यं रामस्य च वनवासःन य मे पई न पुत्तो, दोण्णि वि दिक्खाहिलासिणो जाया। चिन्तेमि तं उवायं, जेण सुयं वो नियत्तेमि ॥ ६४ ॥ तो सा विणओवगया, भणइ निवं केगई महादेवी । तं मे वरं पयच्छसु, जो भणिओ सुहडसामक्ख ॥ ६५ ॥ भणइ तओ नरवसभो, दिक्खं मोत्तण जं पिए भणसि । तं अज्ज तुज्झ सुन्दरि! सर्व संपाडइस्सामि ।। ६६ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, रोवन्ती केगई भणइ कन्तं । दढनेहबन्धणं चिय, विरागखग्गेण छिन्नं ते ॥६ ॥ एसा दुद्धरचरिया, उवइट्ठा जिणवरेहि सबेहिं । कह अज तक्खणं चिय, उप्पन्ना संजमे बुद्धी? ॥ ६८॥ सरबहसमेसु सामिय! निययं भोगेसु लालियं देहं । खर-फरुस-कक्कसयरे, कह अरिहसि परिसहे जेउं? ॥ ६९॥ चलणङ्गलीऍ भूमि, बिलिहन्ती केगई समुल्लवइ । पुत्तस्स मज्झ सामिय! देहि समत्थं इमं रजं ॥ ७० ॥ तो दसरहो पवुत्तो, सुन्दरि ! पुत्तस्स तुज्झ रज्जं ते । दिन्नं मए समत्थं, गेहसु मा णे चिरावेहि ॥ ७१ ॥ तो दसरहेण सिग्धं, पउमो सोमित्तिणा समं पुत्तो । वाहरिओ बसहगई, समागओ कयपणामो य ।। ७२ ॥ वच्छ! महासंगामे, सारथं केगईऍ मज्झ कयं । तुट्टेण बरो दिनो, सबनरिन्दाण पचखं ॥ ७३॥ तो केगईऍ रज, पुत्तस्स विमग्गियं इमं सयलं । किं वा करेमि बच्छय! पडिओ चिन्तासमुद्दे है ॥ ७४ ॥ भरहो गिण्हइ दिक्खं, तस्स विओगम्मि केगई मरइ । अहमवि य निच्छएणं, होहामि जए अलियवाई ॥ ७५ ॥ तो भणइ पउमनाहो, ताय ! तुम रक्ख अत्तणो वयणं । न य भोगकारणं मे, तुज्झ अकित्तीऍ लोगम्मि || ७६ ॥ नाएण सुएण पह! चिन्तेयचं हियं निययकालं । जेण पिया न य सोगं, गच्छइ एग पि य मुहत्तं ॥ ७७॥ अवस्थाकी आशा रखी जाय ? (६१) यहाँ अकेला ही यह मोहान्ध जीव दुःख एवं पापसे संकुल भवरूपी अरण्यमें जहाँ-तहाँ भटकता रहता है। (६२) भरतको इस प्रकार प्रतिबुद्ध जानकर सर्व कलाओंमें कुशल देवी कैकेई हृदयमें शोकान्वित हो मोचने लगी कि न तो मेरे पति हैं और न पुत्र है। दोनों ही दीक्षाके अभिलाषी हुए हैं। मैं वैसा उपाय सोचती हूँ जिससे पुत्रको तो लौटा लू। (६३-६४। तब विनय धारण करके महादेवी केकेईने राजासे कहा कि सभटोंके समक्ष जिस वरके बारे में आपने कहा था वह वर मुझे दो। (६५) इस पर राजाने कहा कि, हे प्रिये ! हे सुन्दरी! दीक्षाको छोड़कर जो कहोगी वह सब आज तुम्हें दूंगा। (६४) यह वचन सुनकर रोती हुई कैकेईने पतिसे कहा कि आपने वैराग्यरूपी तलवारसे स्नेहके दृढ़ बन्धनको काट डाला है। (६७) सभी जिनवरोंने इस दुर्धर चर्याका उपदेश दिया है। आज एकदम संयममें बतिकैसे उत्पन्न हुई है? (६८) हे स्वामी! सुरपति सरीखे भोगीम आपने अपने शरीरका लालन-पालन किया है। नोत्र कठोर और अत्यन्त कर्कश परीषहोंको आप कैसे जीत सकोगे ? (६९ पैरोंकी उँगलीसे जमीनको कुरेदती हई कैकेईने कहा कि, हे स्वामी ! मेरे पुत्रको यह सारा राज्य दें। (७०) तब दशरथने कहा कि, हे सुन्दरो! तेरे पुत्रको मैंने सारा शायदे दिया। इसे तू ग्रहण कर। देर मत लगा । (७१) बादमें लक्ष्मणके साथ रामको राजाने शीघ्र ही बलाया। वृषभके समान गतिवाले राम आये और उन्होंने प्रणाम किया। (७२) राजाने कहा कि, हे वत्स ! महासंग्राममें कैकेईने सारथिपन किया था। तुष्ट होकर मैंने सब राजाओंके समक्ष उसे एक बर दिया था। (७३) अब कैकेईके पुत्रके लिए यह सारा राज्य माँगा है। हे वत्स! मैं क्या करूँ? मैं तो चिन्तारूपी समुद्र में डूब गया हूँ। (७४) भरत दीक्षा ले रहा है और उसके वियोगमें कैकेई मर रही है। इधर मैं भी अवश्य हो संसारमें मिथ्याभाषी कहा जाऊँगा। (७५) इस पर रामने कहा कि, हे तात! आप अपना वचन रखें। आपकी लोकमें अकीति हो तो मेरे लिए भोगका कारण नहीं है। (७६) हे प्रभो! योग्य पुत्रको तो सदैव ऐसा ही हृदयमें सोचना चाहिए, जिससे पिता एक मुहूर्तके लिए भी शोक न करें। (७७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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