SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० पउमचरियं [३१. ४६ भुञ्जन्ति सया रसियं, आहारं कणयभायणविदिन्नं । कुंकुमकयङ्गरागा अक्खीणधणा सुकयपुण्णा ॥ ४६॥ कलमहुरभासिणीहिं, संगयवरचारुवेसरूवाहिं । तरुणविलयाहि समय, कीलन्ति चिरं सुकयपुण्णा ॥ ४७ ॥ धम्मेण लहइ जीवो, सुर-माणुसविविहभोगसामिद्धिं । नरय-तिरिक्खेसु पुणो, पावइ दुक्खं अहम्मेणं ॥४८॥ एव सुणिऊण राया, कम्मविवागं जणस्स सयलस्स । संसारगमणभीओ, इच्छइ घेत्तृण पबज ॥४९॥ सद्दाविया य सिग्धं, सामन्ता आगया समन्तिजणा । काऊण सिरपणाम, उवविट्ठा आसणवरेसु ॥ ५० ॥ सामिय! देहाऽऽणत्ति, किं करणिज ? भडेहि संलवियं । भणिया य दसरहेणं, पवज गिहिमो अजं ॥ ५१ ॥ अह तं भणन्ति मन्ती, सामिय ! किं अज्ज कारणं जायं । धणसयलजुवइवरगं, जेण तुमं ववसिओ मोत्तु? ॥ ५२ ।। तो भणइ नरवरिन्दो. पञ्चक्खं वो जयं निरवसेसं । सुक्कं व तणमसार, डज्झइ मरणग्गिणा धणियं ॥ ५३ ॥ भवियाण जं सुगिझं, अग्गिज्झं अभवियाण जीवाणं । तियसाण पत्थणिज्ज, सिवगमणसुहावह धम्म ॥ ५४॥ तं अज्ज मुणिसयासे, धम्म सुणिऊण जायसंवेगो । संसारभवसमुई, इच्छामि अहं समुत्तरिउं ॥ ५५ ॥ अहिसिञ्चह मे पुत्तं, पढम चिय रजपालणसमत्थं । पवज्जामि अविग्धं, जेणाहं अज्ज वीसत्थो ॥ ५६ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, पबज्जानिच्छियं नरवरिन्दं । सुहडा-ऽमच्च-पुरोहिय, पडिया सोयण्णवे सहसा ॥ ५७ ॥ नाऊण निच्छियमई. दिक्खाभिमुहं नराहिवं एत्तो । अन्तेउरजुवइजणो, सबो रुविउं समाढत्तो ॥ ५८ ॥ दट्टण तारिस चिय, पियरं भरहो खणेण पडिबुद्धो । चिन्तेइ नेहबन्धो, दुच्छेज्जो जीवलोगम्मि ॥ ५९ ॥ तायस्स किं व कीरइ, पबजाववसियस्स पुहईए? । पुत्तं ठवेइ रजे, जेणं चिय पालणट्ठाए ॥ ६० ॥ आसन्नेण किमत्थं, इमेण खणभङ्गुरेण देहेणं । दूरट्ठिएसु अहियं, काऽवत्था बन्धवेसु भवे ? ॥ ६१ ॥ पुण्यशाली लोग सोनेके पात्रों में परोसे गये रसपूर्ण आहारका सदा उपभोग करते थे। (४६) पुण्यसे परिपूर्ण लोग अत्यन्त मधुर बोलनेवाली तथा उत्तम वेश और सुन्दर रूप धारण करनेवाली तरुण स्त्रियोंके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते हैं। (४७) धर्मसे जीव देव एवं मनुष्योंकी विविध भोगसमृद्धि प्राप्त करता है, जब कि अधर्मसे वह नरक एवं तिथंचगतियोंमें दुःख प्राप्त करता है। (४८) सब लोगोंका ऐसा कर्मविपाक सुनकर संसारभ्रमणसे भीत राजाने प्रव्रज्या लेनेका विचार किया । (४९) शीघ्र ही सामन्तोंको बुलाया गया। मंत्रियों के साथ वे आ पहुँचे और सिरसे प्रणाम करके उत्तम आसनों पर बैठे । (५०) 'हे स्वामी! आप आज्ञा दें कि क्या करना है ?'-ऐसा सुभटोंने पूछा । दशरथने कहा कि आज मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा। (५१) इस पर मंत्रियोंने कहा कि, हे स्वामी! आज क्या कारण उपस्थित हुआ है कि धन एवं सारे स्त्रीसमूहका आप परित्याग करना चाहते हैं। (५२) तब राजाने कहा कि तुम्हारे समक्ष अवस्थित यह सारा जगत् सूखे और निःसार तृणकी भाँति मरणरूपी अग्निसे अत्यन्त जल रहा है। (५३) भव्योंके लिए जो सुग्राह्य है, अभव्य जीवोंके लिए जो अग्राह्य है तथा देवोंके लिए जो प्रार्थनीय है वह धर्म मोक्षमें जानेके लिए सुखकर मार्ग है । (५४) आज ऐसे धर्म के बारेमें सुनकर वैराग्य उत्पन्न होने पर संसार जन्मके समुद्रको मैं पार करना चाहता हूँ। (५५) अतः तुम राज्यका पालन करने में समर्थ ऐसे मेरे प्रथम पुत्रका राज्याभिषेक करो, जिससे विश्वस्त होकर मैं आज निर्विघ्न दीक्षा लूँ। (५६) प्रव्रज्या लेनेके लिए दृढ़ निश्चयवाले राजाका ऐसा कथन सुनकर सुभट, अमात्य तथा पुरोहित एकदम शोकरूपी समुद्रमें गिर पड़े। (५७) दृढ़मति तथा दोक्षाकी ओर अभिमुख राजाके वारेमें सुनकर अन्तःपुरकी सब स्त्रियाँ रोने लगीं। (५८) वैसे अर्थात् विरक्त पिताको देखकर भरत तत्काल प्रतिबुद्ध हुआ। वह सोचने लगा कि जीवलोकमें स्नेहका बन्धन मुश्किलसे काटा जा सके ऐसा होता है। (५६) प्रव्रज्याके लिए प्रयत्नशील पिताके लिए पृथ्वीका क्या प्रयोजन है ? इसीलिए उसके पालनके लिए वे पुत्रको राज्य पर स्थापित कर रहे हैं। (६०) यहाँ पर समीपवर्ती होने पर भी इस क्षणभंगुर देहसे क्या प्रयोजन है ? तो फिर वान्धवोंके दूरवर्ती होने पर तो किस अधिक १. निययं-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy