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________________ ३२. ९ ] ३२. दुसरह पव्वज्जा -रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं ववगयरज्जभरो हं, विरओ पावस्स संजमाभिमुहो । न य नज्जइ के वेलं, मुणिवरचरियं पवज्जामि ॥ १२७ ॥ एवं नरिन्दो निणसासणुज्जओ, अहो य राओ य सिवाभिलासिणो । सुहं पबुद्धो मिह भबकेसरी, विमुत्तिमग्गे विमले सुहाल ॥ १२८ ॥ ॥ इय पउमचरिए दसरहपव्वज्जानिच्छय विहाणो नाम एकतीसइमो उद्देसओ समत्तो ।। ३२. दसरहपव्वज्जा -रामनिग्गमण-भरह रज्जविहाणं १ ॥ २ ॥ I ३ ॥ अह तत्थ निणाययणे, निद्दं गमिऊण अड्ढरत्तम्मि । लोगे सुत्तपसुत्ते, नीसंचारे विगयसद्दे ॥ घेत्तु ं धणुवररयणं, सीयासहिया जिणं नमसित्ता । सणियं विणिग्गया ते, दो चेव जणं पलोयन्ता ॥ को वेन्थ सुरयखोणो, गाढं उवगूहिउं सुबइ कन्तं । पुबं कयावराहो, अन्नो महिलं पसाएइ ॥ अवरो पुण परगेहं गन्तुणं कुञ्चिएस अङ्गेसु । उबासइ मज्जारं, जालगवक्खन्तरे धुत्तो ॥ ४॥ अन्नो सुन्नाययणे, संकेय यदिन्नकन्नसन्भावो । अहियं आकुलियमणो, कुणइ निविट्टुट्टियं पुरिसो ॥ ५ ॥ एयं चिय सुणमाणा, पेच्छन्ता जणवयस्स विणिओगं । अह निग्गया पुरीओ, सणियं ते गूढदारेणं ॥ ६॥ अवरदिसं वच्चन्ता, दिट्ठा सुहडेहि मग्गमाणेहिं । गन्तूण पणमिया ते, भावेण ससेन्नसहिएहिं ॥ ७ ॥ सीहा सहावमन्थरगईऍ, सणिय तु तत्थ नरवसहा । गाऊयमेत्तठाणं, वच्चन्ति सुहं बलसमग्गा ॥ ८ ॥ गामेसु पट्टणेसु य, पूइज्जन्ता जणेण बहुएणं । पेच्छन्ति वच्चमाणा, खेड-मडम्बा - SSगरं वसुहं ॥ ९ ॥ दूर, पापसे विरत तथा संयम की ओर अभिमुख मैं नहीं जानता कि किस समय मुनिचर्याके लिए प्रव्रज्या लूँगा । (१२७) इस तरह जिन शासन में उद्यत, रात और दिन कल्याणकी अभिलाषा करनेवाला तथा भव्यजनोंमें सिंह सदृश वह राजा सुखके धाम रूप विमल मुक्तिमार्ग में सुखपूर्वक प्रबुद्ध हुआ । (१२८) ॥ पद्मचरितमें दशरथके प्रव्रज्याके लिए निश्चयका विधान करनेवाला इकत्तीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ ॥ २५५ ३२. दशरथकी प्रव्रज्या, रामका निर्गमन तथा भरतका राज्य उस जिनभवनमें नींद लेकर अर्धरात्रि के समय जब लोग सोये हुए थे और किसीका संचार नहीं हो रहा था तथा आवाज नहीं आ रही थी तब उत्तम धनुषको लेकर तथा जिनेश्वर भगवान्‌को वन्दन करके वे दोनों लोगोंको देखते हुए धीरेसे निकल पड़े । (१-२) वहाँ कोई सुरतके पश्चात् थका हुआ पत्नीको गाढ़ आलिंगन देकर सोया हुआ था तो पूर्व में अपराध किया हुआ दूसरा कोई स्त्रीको खुश कर रहा था । (३) अन्य कोई धूर्त दूसरेके घर पर जाकर और अंगोंको सिकोड़कर गवाक्षकी जाली से बिल्लीको भगा रहा था । ( ४ ) शून्य घरमें कन्याको दिये गये संकेतके अनुसार आया हुआ दूसरा कोई पुरुष अधिक व्याकुल होकर बैठता उठता था । (५) इस तरह लोगों के कार्योंको सुनते-देखते वे गुप्त द्वारमेंसे होकर धीरेसे नगर में से बाहर निकले । (६) दूसरी दिशामें जाते हुए उन्हें खोजनेवाले सुभटोंने देख लिया। अपने सैन्योंके साथ आकर उन्होंने भावपूर्वक प्रणाम किया । (७) सिंह के समान स्वभावसे मन्थर गतिवाले वे राजा सेनाके साथ आरामसे एक कोस भर गये । (5) गाँवों में और नगरोंमें बहुत-से लोगों द्वारा पूजे जाते वे चलते चलते खेट, मडम्ब एवं आकरसे युक्त पृथ्वीका अवलोकन करते थे । (९) इस प्रकार क्रमशः विचरण करते हुए वे सिंह, रुरु (मृग - विशेष ), चमरीमृग एवं शरभ (आठ पैर १. नमेऊण - प्रत्य• । २. संडेयद्वाण दिनसम्भावो - प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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