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३१. दसरहपहज्जनिच्छयविहाणं
पुच्छह मगहनरिन्दो, गणाहिवं दसरहो महारिद्धिं । केण व कएण पत्तो? एयं साहेहि मे भयवं ! ॥१॥ तो भणइ इन्दभूई, सेणिय! निसुणेहि दसरहो राया । मुणिसबभूयसरणं, पुच्छइ निययं भवसमूह ॥ २ ॥ नं एव नरवईणं. अप्पहियं पुच्छिओ समणसीहो । तो साहिउं पवत्तो, परभवपरियट्टणं बहसो ॥ ३ ॥ दशरथपूर्वभवःतो भणइ दसरह ! तुमं, मिच्छत्तेणं तु भमिय संसारे । सेणापुरम्मि नयरे, अत्थि च्चिय भावणो नाम ॥ ४ ॥ भज्जा य दीविया से, तीऍ उवत्थी सुया समुप्पन्ना । सा मिच्छत्तमइलिया, साहूण अवण्णवाई उ ॥ ५॥ मरिऊण उवत्थी सा, भमिय चिरं नरय-तिरियजोणीसु । कम्मपरिणिज्जराए, कमेण पुण्णस्स उदएणं ॥ ६ ॥ नाओ च्चिय अङ्गपुरे, धरणेणं नयणसुन्दरीपुत्तो । बहुबन्धवो सुरूवो, नामेणं भद्दवरुणो ति ॥ ७ ॥ दाऊण भावसुद्ध, फासुयदाणं मुणिस्स कालगओ। धाइयसण्डम्मि तओ, उत्तरकुरुवाएँ उप्पन्नो ॥ ८ ॥ भोत्तण मिहुणसोक्खं, कालगओ सुरवरो समुप्पन्नो । चइऊण पुक्खलाए, नयरीए नन्दिघोसस्स ॥९॥ जाओ च्चिय भज्जाए, पुहईए नन्दिवद्धणो नामं । अह अन्नया नरिन्दो, पडिबुद्धो नन्दिघोसो उ ॥ १० ॥ संसारभउविग्गो, ठविऊणं नन्दिवद्धणं रज्जे । निक्खमइ नन्दिघोसो, पासम्मि जसोहरमुणिस्स ॥ ११ ॥ काऊण तवमुयारं, कालगओ सुरवरो समुप्पन्नो । अह नन्दिवद्धणो च्चिय, सागारतवं कुणइ धीरो ॥ १२ ॥ भोत्तण पुबकोडिं, रज्जं सण्णासणेण कालगओ । विमलामलबोहिधरो, पञ्चमकप्पे सुरो जाओ ॥ १३ ॥ तत्तो चुओ समाणो, अवरविदेहे नगम्मि वेयड्ढे । उत्तरवरसेढीए, विक्खाओ ससिपुरे राया ॥ १४ ॥
३१. दशरथका प्रव्रज्याके लिए निश्चय मगधनरेश श्रेणिकने पूछा कि, हे गणाधिप ! हे भगवन् ! किस कर्मसे दशरथने महाऋद्धि प्राप्त की-यह आप मुझे कहें । (१) तब इन्द्रभूति गौतमने कहा कि, हे श्रेणिक ! तुम सुनो।
दशरथ राजाने सर्वभूतशरण मुनिसे अपने पूर्वभवोंके बारेमें पूछा। (२) चूँकि राजाने आत्महितके बारेमें श्रमणसिंहसे पूछा था, अतः वे पूर्वभवोंके अनेक परिभ्रमणके बारेमें कहने लगे । (३) तब उन्होंने कहा कि, हे दशरथ ! मिथ्यात्वके कारण तुम संसारमें परिभ्रमण करके सेनापुर नामक नगर में भावन नामसे पैदा हुए। (४) उसकी भार्या दीपिका थी। उससे उपास्ति नामकी कन्या हुई। वह मिथ्यात्वसे मलिन तथा साधुकी निन्दा करनेवाली थी। (५) मर करके वह उपास्ति चिरकाल तक नरक एवं तियचयोनियों में घूमी। क्रमशः कर्मकी निर्जरासे तथा पुण्यके उदयसे अंगपुरमें धरणसे नयनसुन्दरीक पुत्ररूपसे वह उत्पन्न हुई। सुन्दर तथा अनेक बन्धुओंवाले उसका नाम भद्रवरुण था। (६-७) शुद्ध भावसे उसने मुनिको प्रासुक दान दिया, जिससे मरने पर वह धातकीखण्डके उत्तरकुरुमें पैदा हुआ । (5) वहाँ रतिसुखका उपभोग करके मरने पर वह देवरूपसे उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत होने पर पुष्कलानगरीमें नन्दिघोषकी भार्या पृथ्वीसे नन्दिवर्धनके नामसे वह उत्पन्न हुआ। एक दिन नन्दिघोष राजा प्रतिबुद्ध हुआ। (९-१०) संसारके भयसे उद्विग्न नन्दिघोषने नन्दिवर्धनको राज्य पर स्थापित करके यशोधर मुनिके पास दीक्षा ली । (११) कठोर तप करके मरने पर वह देव हुआ। इधर धीर नन्दिवर्धन भी गृहस्थके योग्य तप करने लगा । (१२) एक पूर्वकोटि तक राज्यका उपभोग करके प्रव्रज्यापूर्वक मरने पर वह पाँचवें कल्पमें अत्यन्त निर्मल ज्ञानका धारक देव हुश्रा । (१३) वहाँसे च्युत होने पर अपर
१. पुष्वकोडी-मु.।
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