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पउमचरियं
[३१. १५. नामेण रयणमाली, तस्स पियाए य कुच्छिसंभूओ । विजुलयाए पुत्तो, जाओ सूरजयकुमारो ॥ १५ ॥ अह विग्गहेण चलिओ, सीहपुरं रयणमालिणो सबलो । सन्नद्धबद्धकवओ, जत्थ य सो वज्जवरनयणो ॥ १६ ॥ कोहाणलविज्जाए, उहिउमणो रिउपुरं रहारूढो । वच्चन्तो चिय भणिओ, गयणयलत्थेण देवेणं ॥ १७ ॥ भो रयणमालिनरवइ ! मा ववससु एरिसं महापावं । निसुणेहि मज्झ वयंणं, कहेमि तुह पुषसंबन्धं ॥ १८॥ इह भारहम्मि वरिसे, गन्धारे आसि भूरिणो नाम । दट्टण कमलगभं, साहं तो गेहए नियमं ॥ १९॥ न करेमि पुणो पावं, भणइ तओ एरिसं वयं मज्झं। पञ्चपलिओवमाई, सग्गे अजेइ देवाउं ॥ २०॥ उवमच्चुनामधेओ, तत्थेव पुरोहिओ वसइ पावो । तस्सुवएसेण वयं, मुञ्चइ भूरी अकयपुण्णो ॥ २१ ॥ खन्देण हिंसिओ सो. पुरोहिओ गयवरो समुप्पन्नो । जज्झे जजरियतण लहइ च्चिय कण्णजावं सो ॥ २२ ॥ कालगओ गन्धारे, तत्थेव उ भूरिणस्स उप्पन्नो । जोयणगन्धाएँ सुओ, अरिहसणो नाम नामेणं ॥ २३ ॥ दट्ठण कमलगन्भ, पुवभवं सुमरिऊण पबइओ । कालगओ उप्पन्नो, सहसारे सुरवरो अहयं ॥ २४ ॥ सो हु तुम जो भूरी, कालं काऊण दण्डगारण्णे । जाओ दगकित्तिधरो, दवेण दड्डो मओ तत्तो ॥ २५॥ पावपसङ्गेण गओ, बीयं चिय सक्करप्पमं पुढविं । तत्थ मए नेहेणं, नरए पडिबोहिओ गन्तुं ॥ २६ ॥ तत्तो च्चिय नरयाओ, कालेणुवट्टिओ रयणमाली । जाओ तुमं महायस, राया विजाहराहिवई ॥ २७ ॥ जो आसि पुरा भूरी, सो हु तुमं रयणमालिणो जाओ। जो वि य आसुवमच्च , पुरोहिओ सो अहं देवो ॥ २८ ॥ किं ते नऽणुहूयाई, दुक्खाई नरय-तिरियनोणीसु । जेणेरिसं अकजं, करेसि घणरागदोसेणं ॥ २९ ॥ सुणिऊण देववयणं, संवेगपरायणो नरवरिन्दो। कुलणन्दणं ठवेई, रज्जे सूरंजयस्स सुयं ॥ ३०॥
विदेहमें आये हुए बैतान्यपर्वतकी उत्तरभेणीमें स्थित शशिपुरमें रनमालो नामका राजा हुआ। उसकी प्रिया विद्यल्लताकी कुक्षिसे सूर्यजयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। (१४-१५)
__ एक बार तैयार हो और कवच बाँध रत्नमालीने सेनाके साथ सिंहपुरकी ओर प्रयाण किया जहाँ पर कि वह वावरनयन राजा था। (१६) क्रोधसे आग्नेय विद्याके द्वारा शत्रुसैन्यको जला डालनेकी इच्छावाला वह जब रथ पर थारूढ़ होकर जा रहा था तब आकाशस्थित देवने कहा कि, हे रत्नमाली राजा ! ऐसा महापाप मत करो। मेरा कहना सुनो। मैं तुम्हारा पूर्ववृत्तान्त कहता हूँ। (१७-१८) इस भारतवर्षमें आये हुए गान्धारप्रदेशमें भूरी नामका राजा था। कमल-गर्भ साधुको देखकर उसने नियम अंगीकार किया तब उसने कहा कि अब मैं पाप नहीं करूँगा और मेरा ऐसा व्रत है। इस पर पाँच पल्योपमकी देवायु उसने उपार्जित की । (१९-२०) उपमृत्यु नामका एक पापी पुरोहित वहाँ रहता था। उसके उपदेशसे अपुण्यशाली भूरीने व्रत छोड़ दिया । (२१) स्कन्दके द्वारा मारा गया वह पुरोहित हाथीके रूपमें उत्पन्न हुआ। यद्ध में जर्जरित शरीरवाले उसको कानमें जापका लाभ हुआ। (२२) मरकर वही गान्धारमें भूरीकी पत्नी योजनगन्धाके अरिहसन नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। (२३) कमलगर्भको देखकर और पूर्वभवको याद करके प्रव्रजित हुआ और मरने पर सहस्रारमें देव हुआ हूँ। (२४) जो भूरी था वही तुम हो। मर करके दण्डकारण्यमें उदककीर्तिधर हुआ। दावानलसे जलने पर मर करके वह पापकी वजहसे दूसरे नरक शर्कराप्रभा पृथ्वीमें उत्पन्न हुआ। वहाँ नरकमें स्नेहवश मैंने जाकर उसे प्रतिबोधित किया। (२५-२६) हे महायश! समय आने पर उस नरकमेंसे निकलकर तुम विद्याधरोंके अधिपति रनमाली हुए हो। (२७) जो पहले भूरी था वही तुम रत्नमाली हुए हो और जो उपमृत्यु पुरोहित था वही मैं देव हूँ। (२८) नरक एवं तियेच गतियोंमें तुमने क्या दुःख नहीं अनुभव किये कि अत्यन्त राग एवं द्वेषवश ऐसा अकार्य करनेके लिए तत्पर हुए हो ? (२९)
देवका कथन सुनकर राजा संवेगपरायण हुआ। सूर्यजयके पुत्र कुलनन्दनको उसने राजगद्दी पर बिठाया। (३०)
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