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________________ २४६ पउमचरियं [३०.८६ लेहत्थमुणियसारो. सपरियणो नरवई समज्जाओ । अभिणन्दिओ सुदूर, कयकोउयमङ्गलरवेणं ॥ ८६ ॥ विज्जाहरसाहीणं, भज्जाएँ समं नराहिवो तुरियं । आरुहिऊण खणेणं, साएयपुरि समणुपत्तो ॥ ८७ ॥ दट्टण निययपुत्तं, आलिङ्गिऊण रुयइ नरवसभो । अइदीहविओगाणल-तविओ पगलन्तनयणजुओ ॥ ८८॥ रुइऊण समासत्थो, पुत्तं परिमुसइ अङ्गमङ्गेसु । हियएण नायहरिसो, चन्दणफरिसोवमं महइ ॥ ८९॥ दट्टण सुयं जणणी. मुच्छा गन्तूण तत्थ पडिबुद्धा । रुयइ कलुणं मयच्छी, चिरदसणलद्धजीयासा ॥१०॥ नत्तो पभूइ पुत्तय ! केण वि बालत्तणम्मि अवहरिओ । तत्तो इमं सरीरं, दवं चिन्ताग्गिणा मझं ॥९१ ॥ तुह दरिसणोदएणं, विज्झवियं एत्थ नत्थि संदेहो । परिओससमूसवियं, अज्जप्पभिई महं हिययं ॥ ९२ ॥ धन्ना सा अंसुमई, जीए अङ्गाई बालभावम्मि । परिचुम्बियाई पुत्तय ! कीलणरयरेणुमइलाई ॥ ९३ ।। फुसिऊण नयणजुयलं, थणेसु खीरं तओ हरिसियङ्गी । अभिणन्दिया विदेहा, समागमे निययपुत्तस्स ॥ ९४ ॥ कुणइ जणओ महन्तं, पुत्तनिमित्तं समागमाणन्दं । जिणचेइयपूयत्थं, ण्हवणविहिं चेव सविसेसं ॥ ९५॥ भामण्डलेण भणिओ. रामो अच्चन्तबन्धवो तुयं । सीया न गच्छइ पहू, जह उवयं पययं पि॥ ९६ ॥ संभासिऊण सबे, नणयं मिहिलापुरि विसज्जेउं । पियरं घेत्तण गओ, निययं भामण्डलो ठाणं ॥ ९७ ॥ एवं सेणिय ! पेच्छ धम्मनिहसं तुझं पुरा सेवियं, जाओ नेहनिरन्तरोच्छयमगो बन्धू पहामण्डलो। वज्जावत्तधणुं वसम्मि ठवियं सीया य से गेहिणी, रामस्सऽब्भुयकारणस्स विमलो भन्तो जसो मेइणी ।। ९८ ॥ ॥ इय पउमचरिए भामण्डलसंगमविहाणो नाम तीसइमो उद्देसओ समत्तो।। किया गया। (८६) पत्नीके साथ विद्याधरके यानमें शीत्र ही आरूढ़ होकर राजा क्षणभरमें साकेतपुरीमें आ पहुँचा। (८७) अपने पुत्रका दर्शन तथा आलिंगन करके अतिदीर्घ वियोगरूपो अग्निसे तप्त तथा दोनों आँखोंसे आँसू बहाता हुआ राजा रोने लगा । (८८) रोनेके पश्चात् समाश्वस्त राजा पुत्रको अंग-प्रत्यंगसे छूने लगा। आनन्दमें आया हुआ वह हृदयसे उसे चन्दनके स्पर्शक समान मानता था। (८९) पुत्रको वहाँ देखकर माता मूर्छित हो गई। होशमें आने पर चिरकालके पश्चात् दर्शन होनेसे जीवनकी आशा जिसने प्राप्त की है ऐसो वह मृगाक्षी करुणस्वरमें रोने लगो कि, हे पुत्र ! बचपनमें जबसे तुम्हारा अपहरण हुआ तबसे मेरा यह शरीर चिन्तारूपो अग्निसे अत्यन्त जल रहा था। (९०-९१) यहाँ पर तुम्हारे दर्शनसे वह शान्त किया गया है, इसमें सन्देह नहीं। आजसे मेरा हृदय परितोषके कारण ऊपर उछल रहा है । (३२) हे पुत्र ! वह अंशुमती धन्य है जिसने बचपनमें खेलमें लगी हुई धूलसे मलिन अंगोंको चुमा है । (९३) दोनों आँखोंको तथा स्तनों में आये हुए दूधको पोछकर हर्षिताङ्गी विदेहा अपने पुत्रक समागम पर आनन्दित हुई। (९४) जनकने पुत्रके समागममें बड़ा भारी उत्सव मनाया और खासतौर पर जिनमन्दिरोंमें पूजाके लिए स्नानविधि की। (९५) भामण्डलने रामसे कहा कि, हे प्रभो ! तुम ही मेरे अत्यन्त-बन्धु हो। सीता तनिको भी उद्वेग प्राप्त न करे ऐसा प्रयत्न तुम करना । (९६) सबके साथ वार्तालाप करके, जनकको मिथिलापुरी भेजकर तथा पिता (चन्द्रगति) को लेकर भामण्डल अपने स्थान पर गया । (९७) हे श्रेणिक ! पूर्वजन्ममें सेवित विशिष्ट और विशालधर्मको देखो स्नेहसे निरन्तर उछलते हुए मनवाला भामण्डल जिसका भाई हुआ, वावर्त धनुष जिसने वशमें किया और सीता जिसकी गृहीणी हुई उस अद्भुत कार्यके कारणरूप रामका विमल यश पृथ्वीमें फैला है।(२८) । पद्मचरितमें भामण्डलसंगम विधान नामका तीसवाँ उद्देशक समाप्त हुआ। १. मुच्छं-प्रत्य० । २. सा पुष्फबई-मु.। ३. वन्धू य भामण्डलो-प्रत्य.। ४. मेइणि-प्रत्य.। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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