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२४४ पउमचरियं
[ ३०.५६. सुणिऊण पगयमेयं, सबे विज्जाहरा सुविम्हइया । चन्दगई वि नरिन्दो, पबइओ जायसंवेगो ॥ ५६ ॥ एत्थन्तरे मुणिन्दं, पुच्छइ भामण्डलो मह सिणेहं । अहियं वहइ महायस! चन्दगई केण कज्जेणं ? ॥ ५७ ॥ असुमईऍ महायस! समप्पिओ वा अहं तओ पढमं । तत्थेव खेयरपुरे, जम्माणन्दो कओ परमो ॥ ५८ ॥ चन्द्रगति-भामण्डलपूर्वभवसम्बन्धःतो सबभूयसरणो, भणइ य भामण्डलं सुणसु एत्तो । माया-वित्तजुवलयं नं आसि परे भवे तुझं ॥ ५९ ॥ विप्पो दारुम्गामे, विमुची नामेण गेहिणी तस्स । अणुकोसा अइभूई, पुत्तो सुण्हा य से सरसा ॥ ६० ॥ अह अन्नया कयाई, विप्पो सरसं नईऍ, दट्टणं । अवहरइ मयणमूढो, कंयाणनामो महापावो ॥ ६१ ॥ एत्तो सो अइभूई. कन्तासोगाउरो महिं सयलं । परिभमइ गवेसन्तो, ताव य से लूडियं गेहं ॥ ६२ ॥ विमुची वि य पढमयरं, हिण्डइ देसं तु दक्खिणाकडी । सुणिऊण गेहभङ्ग, पुत्तस्स तओ पडिनियत्तो ॥ ६३ ॥ चीरम्बरपरिहाणिं, अणुकोसं पेच्छिऊण अइदुहियं । संथावेइ य विमुची, तीऍ समं मेइणी भमइ ॥ ६४ ॥ पेच्छइ य सच्चरिपुरे, अवहिसमग्गं मुणिं विगयमोहं । सुण्हा-सुयसोगेण य, निवेयं चेव पडिवन्नो ॥ ६५ ।। दट्टण साहुरिद्धि, संसारठिई च तत्थ निसुणेउं । संवेगजणियकरणो, विमुची दिक्खं समणुपत्तो ॥ ६६ ॥ सा वि तहिं अणुकोसा, पासे अजाएँ कमलकन्ताए । संजमतवनियमधरी, जाया समणी समियपावा ॥ ६७ ॥ अह ताण दो वि मरिउं, तव-नियमगुणेण देवलोगम्मि। निच्चालोयमणहरं, गयो य लोगन्तियं ठाणं ॥ ६८ ॥ अइभूइ कयाणो वि य, निस्सीलो निद्दओ करिय कालं । हिण्डेइ चाउरङ्गे, दुग्गइभवसंकडे भीमे ॥ ६९ ॥ सरसा वि य पवज्जं, काऊण तवं समाहिणा, मरिउं । उववन्ना कयपुण्णा, देवी चित्तस्सवा नाम ॥ ७० ॥
यह वृत्तान्त सुनकर सभी विद्याधर अत्यन्त विस्मित हुए । 'चन्द्रगति राजा भी वैराग्य उत्पन्न होने पर प्रवजित हुआ। (५६) इसके बाद भामण्डलने मुनिसे पूछा कि, हे महायश! चन्द्रगति किसलिए मुझ पर अधिक स्नेह रखते हैं ? हे महायश! अंशुभतिको मैं प्रथम सौंपा गया और उस खेचरपुरमें मेरा बड़ा भारी जन्मोत्सव मनाया गया इसका क्या कारण है ? (५७-५८) तब सर्वभूतशरण मुनिने भामण्डलसे कहा कि तुम्हारे माता-पिताका जो युगल पूर्वभवमें था उसके बारेमें अब तुम सुनो । (५९)
दारुग्राममें विमुचि नामक एक ब्राह्मण था। अनुकोशा उसकी गृहिणी थी। उसे अतिभूति नामका पुत्र और सरसा नामकी पुत्रवधू थी। (६०) एक दिन कयाण नामका एक महापापी ब्राह्मण सरसाको मदीके ऊपर देखकर मदनसे विमूढ़ हो उठा और उसे ले गया। (६१) इसलिए कान्ताके शोकसे आतुर हो वह अतिभूति ढूँढ़ता हुआ सारी पृथ्वी पर घूमने लगा। उधर उसका घर लूट गया। (६२) दक्षिणाकी आकांक्षावाला विमुचि प्रथम तो देशमें घूमता था, पर पुत्रके गृहभंगके बारेमें सुनकर वह लौट आया । (६३) अत्यन्त दुःखित तथा जोर्ण वस्त्रवाली अनुकोशाको देखकर विमुचिने उसे सान्त्वना दी। फिर उसके साथ पृथ्वी पर घूमने लगा। (६४) पुत्रवधू और पुत्रके शोकसे सन्तप्त उसने सत्यारिपुरमें मोहरहित तथा अवधिज्ञानसे युक्त एक मुनिको देखा और निर्वेद प्राप्त किया । (६५) वहाँ साधुकी ऋद्धि देखकर और संसार स्थितिके बारेमें सुनकर जिसके मनमें संवेग उत्पन्न हुआ है ऐसे विमुचिने दीक्षा अंगीकार की। (६६) पापका शमन करनेवाली अनुकोशा भी वहीं पर कमलकान्ता नामकी आर्याके पास संयम, तप तथा नियमको धारण करनेवाली श्रमणी हुई । (६७) बादमें वे दोनों तप एवं नियमपूर्वक मरकर देवलोकमें नित्य आलोकसे मनोहर ऐसे लोकान्तिक स्थानमें गये। (६८) शीलरहित तथा दयाशून्य अतिभूति तथा कयाण भो मरकर चार अंगवाले दुर्गतिरूपी घोर भववनमें परिभ्रमण करने लगे । (६९) पुण्यशालिनी सरसा भी दीक्षा लेकर, तप करके तथा समाधिपूर्वक मरकर चित्तोत्सवा नामकी देवी
१. मातापितृयुगलकम् । २. जुयलयं-प्रत्य० । ३. धणदत्तमुभो कयाणो य-प्रत्यः ।
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