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.३०.५५] ३०. भामण्डलसंगमविहाणं
२४३ सायारमणायार, सुद्धं बहुभेय-पज्जयं धम्मं । भवियसुहुप्पायणयं, अभवजीवाण भयजणणं ॥ ४० ॥ सम्मइंसणजुत्ता, तव-नियमरया विसुद्धदढभावा । देहे य निरवयक्खा, समणा पावन्ति सिद्धिगई। ४१ ॥ जे वि य गिहधम्मरया, पूया-दाणाइसीलसंपन्ना । सङ्काइदोसरहिया, होहिन्ति सुरा महिड्डीया ॥ ४२ ॥ एवं बहुप्पयारं, जिणवरधम्म विहाऍ काऊणं । लभिहिन्ति देवलोए, ठाणाणि जहाणुरूवाणि ॥ ४३ ॥ जे पुण अभबजीवा, निणवयणपरम्मुहा कुदिट्ठीया । ते नरयतिरियदुक्खं, अणुहोन्ति अणन्तयं कालं ॥ ४४ ॥ एवं मुणिवरविहियं, धम्मं सोऊण दसरहो भणइ । केण निभेण विउद्घो, चन्दगई खेयराहिवई? ॥ ४५ ॥ संसारम्मि अणन्ते, जीवो कम्मावसेण हिण्डन्तो । गहिओ चन्दगईणं, बालो वरकुण्डलाभरणो ॥ ४६॥ संवड़िओ कमेणं, एसो भामण्डलो वरकुमारो । जणयतणयाएँ रूवं, द₹ मयणाउरो जाओ ॥ ४७॥ . सरिओ य पुबजम्मो, मुच्छा गन्तुं पुणो वि आसत्थो । परिपुच्छिओ कुमारो, चन्दगईणं तओ भणइ.॥ ४८ ॥ अत्थेत्थ भरवासे, वियब्भनयरं सुदुग्गपायारं । तत्थाहं आसि निवो, वरकुण्डलमंडिओ नामं ॥ ४९ ॥ विप्पस्स मए मज्जा, हरिया बद्धो य बालचन्देणं! मुक्को मुणिवरपासे, गेण्हामि अणामिसं च वयं ॥ ५० ॥ कालं काऊण तओ, जणयस्स पियाएँ गब्भसंभूओ। जाओ बालाएँ समं, जिणवरधम्माणुभावेणं ।। ५१ ॥ महिलाविओगदुहिओ, विप्पो वि य पिङ्गलो तवं काउं। उववन्नो पढमयरं, देवो संभरइ पुबभवं ॥ ५२ ॥ तो जायमेत्तओ हं, घेत्तणं तेण वेरियसुरेणं । मुक्को य धरणिवटे, पुणरवि य तुमे घरं नीओ ॥ ५३ ॥ परिवडिओ कमेणं, जाओ विजाहरो तुह गुणेणं । ओमुच्छिएण सहसा, अन्नभवो मे तओ सरिओ ।। ५४ ॥ माया मे वइदेही, जणओ य पिया न एत्थ संदेहो । सा वि य मज्झ नराहिव! सीया एक्कोयरा बहिणी ॥ ५५ ॥
सागार और अनगार तथा शुद्ध एवं बहुतसे भेद और पर्यायोंसे युक्त वह धर्म भव्यजनोंके लिए सुखजनक तथा अभव्य जनोंके लिए भयोत्पादक था। (३९-४०) सम्यग्दर्शनसे युक्त, तप एवं नियममें निरत, विशुद्ध एवं दृढ़ भाववाले तथा शरीरमें अनासक्त श्रमण सिद्धिगति प्राप्त करते हैं। (४१) और गृहस्थधर्ममें रत हो जो पूजा, दान आदि शीलसे सम्पन्न तथा शंका आदि दोषसे रहित होते हैं वे बड़ी ऋद्धिवाले देव होते हैं। ४२) इस तरह जिनवरके बहुत प्रकारके धर्मका विधिपूर्वक पालन करनेसे जीव देवलोकमें यथायोग्य स्थान प्राप्त करते हैं । (४३) जो जिनवचनसे पराङ्मुख और कुदृष्टिवाले अभव्य जीव होते हैं वे अनन्तकाल तक नरक एवं तियचगतिक दुःखका अनुभव करते हैं। (४४)
मुनिवर द्वारा कहे गये ऐसे धर्मको सुनकर दशरथने पूछा कि खेचराधिपति चन्द्रगतिको जागृति किस कारण हुई है ? (४५) इस पर मुनिवरने कहा कि जीव कर्मवश अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता है। चन्द्रगतिने उत्तम कुण्डलोंसे अलंकृत एक बालक ग्रहण किया। (४६) अनुक्रमसे वह कुमारवर भामण्डल बड़ा हुआ और जनकतनया सीताका रूप देखकर मदनातुर हो गया। (४७) उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया। मूर्छित होनेके बाद पुनः वह आश्वस्त हुआ। तब चन्द्रगति द्वारा पूछने पर कुमारने कहा कि इस भरतक्षेत्रमें दुर्गम प्राकारवाला एक विदर्भनगर है। वहाँ मैं कुण्डलमण्डित नामका राजा था। (४८-४९) ब्राह्मणकी भार्याका मैंने अपहरण किया। बालचन्द्रके द्वारा मैं बाँधा गया। छूटने पर मुनिवरके पास अनामिषव्रत मैंने अंगीकार किया । (५०) तब मरकर जिनवरके धर्मके प्रभावसे जनककी प्रियाके गर्भ में उत्पन्न मैं एक लड़कीके साथ पैदा हुआ। (५१) पत्नोके वियोगसे दुःखित ब्राह्मण पिंगल भी तप करके देवरूपसे उत्पन्न हुया। उसने पूर्वभवका स्मरण किया। (५२) तब पैदा होते ही उस शत्रुदेवने मुझे उठा लिया और फिर जमीन पर छोड़ दिया। तुम मुझे घर पर लाये । (५३) क्रमशः बढ़ता हुआ मैं तुम्हारे प्रभावसे विद्याधर हुमा। तब मूर्छित मुझे सहसा पूर्वभव याद आ गया (५४) हे राजन् ! इसमें सन्देह नहीं कि मेरी माता विदेहा है और पिता जनक हैं तथा वह सीवा ही मेरी सहोदरा भगिनी है। (५५)
१. कयकुण्ड-मुना। २. मुच्छं-प्रत्य० ।
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