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पउमचरियं
थुणिऊण पणमिण य, मुणिवसहं नरवई पहट्ट मणो । पविसरइ निययनेयरी, गमेइ कालं नहिच्छाए ॥ ४८ ॥ एवं राया मुणिगुणकहासत्तचित्तो महप्पा, पूया - दाणं विणयपणओ देइ सबायरेणं । सेविज्जन्तो गमइ दिय दिवनारीजणेणं, पुबोवत्तं विमलहियओ भुञ्जई देहसोक्खं ॥ ४९ ॥ ॥ इय पउमचरिए दसरहवइराग सम्बभूयसरणागमो नाम एगूगतीसइमो उद्देसओ समत्तो ॥
३०. भामण्डलसंगमविहाणं
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घणगरुयगज्जियरवो, कालो चिय पाउसो वइक्कन्तो । उद्दण्डपुण्डरीओ, संपइ सरओ समणुपत्तो ॥ ववगयघणसेवालं, ससिहंसं धवलतारयामुयं । लोगस्स कुणइ पीई, नभसलिलं पेच्छिउं सरए ॥ २ ॥ चक्काय- हंस-सारस- अन्नोनरसन्तकयसमा लावा । निप्फण्णसब सस्सा, अहियं चिय रेहए वसुहा ॥ ३ ॥ भामण्डलस्स एवं सीयाचिन्ताएँ गहियहिययस्स । सरओ च्चिय वोलीणो, मयणमहाजलणतवियस्स ॥ ४ ॥ अह अन्नया कुमारो, लैंज्जा मोत्तूण पिउसगासम्म । सोयाऍ कारणट्टे, भणइ वसन्तद्धयं मितं ॥ मा कुणसु दीहसुत्तं, परकज्जं सीयलं परिगणन्तो । मयणसमुद्दविवडियं सुपुरिस ! तं मे न उक्खिवसि ॥ एवं समुल्लवन्तं, भणइ कुमारं महद्धओ वयणं । निपुणेहि कहिज्जन्तं, सम्बन्धं तीऍ कन्नाए ॥ नणओ कुमार ! अम्हे, एत्थाऽऽऊण मग्गिओ कन्नं । तेणं पि एवं भणियं रामस्स मए पढमदिन्ना ॥ मुनिवृषभको प्रणाम करके मनमें आनन्दित राजाने अपनी नगरी में प्रवेश किया और इच्छानुसार काल व्यतीत करने लगा। (४७-४८)
६ ॥
७ ॥
८ ॥
इस प्रकार मुनिके गुण तथा उपदेशमें आसक्त चित्तवाला, महात्मा और विनयसे प्रणत राजा पूजा करता था तथा दान देता था । सेवा किया जाता वह दिव्य स्त्रियोंके साथ दिन बिताता था और पूर्वजन्म में प्राप्त किये हुए शरीरसुखका विमल हृदयवाला वह उपभोग करता था । (४९)
। पद्मचरितमें दशरथ-वैराग्य तथा सर्वभूतशरणका आगमन नामक उन्तीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ ।
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३०. भामण्डलका पुनर्मिलन
बादल और गम्भीर गर्जन-ध्वनि जिसमें होती है ऐसा वर्षाकाल व्यतीत हुआ । अब कमलोंको उद्दण्ड करनेवाला शरत्काल आया । (१) बादलरूपी सेवारसे रहित, चन्द्ररूपी हंससे युक्त, सफेद तारे रूपी कुमुदसे व्याप्त ऐसे आकाश रूपी जलको शरत्काल में देखकर लोगोंको आनन्द होता था । (२) जिसमें चक्रवाक, हँस और सारस एक-दूसरे के साथ समालाप करते हैं और सब प्रकारके धान्य जिसमें उत्पन्न हुए हैं ऐसी पृथ्वी अधिक शोभित हो रही थी । (३) सीताकी चिन्ताने जिसके हृदयको पकड़ रखा तथा मदनकी बड़ी भारी अग्निसे जो तप्त है ऐसे भामण्डलका शरत्काल भी व्यतीत हो गया । (४) एकदिन लज्जाका परित्याग करके कुमारने पिताके समक्ष ही सीताके बारे में मित्र वसन्तध्वजसे कहा ! (५) दूसरेके कार्यको तुच्छ मानकर तुम दीर्घसूत्री मत बनो । हे सुपुरुष मदनरूपी सागर में गिरे हुए मुझको तुम बाहर क्यों नहीं निकालते ? (६) इस तरह बोलते हुए कुमारको वसन्तध्वजने कहा कि उस कन्या के बारेमें तुम मेरा कहना सुनो । (७) हे कुमार ! यहाँ लाकरके जनकसे हमने कन्याकी मँगनी की थी। उसने भी ऐसा कहा कि मैंने रामको पहले ही दे दी है । (5) मित्रने आगे धनुष आदिके बारेमें जैसा हुआ था वैसा सब कुछ कहा। हे कुमार ! राजाओं के बीच १. सुनिऊण - प्रत्य• । २. नयरिं- प्रत्य• ।
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३. कुसुम मु० । ४. लज्जं - प्रत्य० 1
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