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२९. दसरहबइराग-सब्बभूयसरणमुणिभागमणं
२३९ पुण्णेण परिग्गहिया, ते पुरिसा जे गिहं पयहिऊणं । धम्मचरणोवएस, कुणन्ति निच्चं दढधिईया ॥ ३२ ॥ कइया हं विसयसुह, मोत्तण परिग्गहं च निस्सङ्गो । काहामि जिणतवं चिय, दुक्खक्खयकारणट्टाए ॥ ३३ ॥ भुतं चिय विसयसुह, पुहई परिपालिया चिरं कालं । जणिया य पवरपुत्ता, अन्नं किं वा पडिक्खामि ॥ ३४ ॥ परिचिन्तिऊण एयं, राया पुबिंकयस्स अवसाणे । धम्माणुरागरत्तो, भोगेसु अणायरं कुणइ ॥ ३५ ॥ कस्स वि कालस्स तओ, विहरन्तो सुमहएण सङ्घणं । पत्तो साएयपुरिं, मुणिवसभो सबसत्तहिओ ॥ ३६ ॥ पन्थायवपरिसमियं, सङ्घ ठविऊण 'सरिसउद्देसं । पविसरइ अप्पदसमो, महिन्दउदयं वरुज्जाणं ॥ ३७ ।। तस-पाण-जन्तुरहिए. सिलायले समयले मणभिरामे । नागद्दुमस्स हेट्टे, चउनाणी तत्थ उवविठ्ठो ॥ ३८ ॥ केई गुहानिवासी, पब्भारेसु य अवट्टिया समणा । गिरिकन्दरेसु अन्ने, समासिया चेइयहरेसु ॥ ३९ ॥ . सो सबभूयसरणो, चाउबण्णेण समणसङ्घेणं । तत्थेव गमइ मासं, ताव चिय, पाउसो पत्तो ॥ ४० ॥ गज्जन्ति घणा गरुयं, तडिच्छडाडोवभासुरं गयणं । धारासयजज्जरिया, नवसाससमाउला पुहई ॥ ४१ ॥ परिवडन्ति नईओ, जाया पहियाण दुग्गमा पन्था । उसुयमणाउ एत्तो, गयवइयाओ विसूरन्ति ॥ ४२ ॥ झज्झ त्ति निज्झराणं, बप्पीहय-दबुराण मोराणं । सद्दो पवित्थरन्तो, वारणलीलं विलम्बेइ ॥ ४३ ॥ एयारिसम्मि काले, समणा सज्झाय-झाण-तवनिरया । अच्छन्ति महासत्ता, दुक्खविमोक्खं विचिन्तन्ता ॥ ४४ ॥ अह अन्नया नरिन्दो, पभायसमये भडेहि परिकिण्णो । वच्चइ उज्जाणवरं, मुणिवन्दणभत्तिराएणं ॥ ४५ ॥ संपत्तो य दसरहो, अहिवन्देऊण भावओ साहू । तत्थेव य उवविट्टो, सुणेइ सिद्धन्तसंबन्धं ॥ ४६॥
लोगो दबाणि तहा, खेत्तविभागो य कालसब्भावो । कुलगरपरम्परा वि य, नरिन्दवंसा अणेगविहा ॥४७॥ बुद्धिवाले मनुष्य धर्मका दूरसे ही त्याग करते हैं । (३१) जो दृढ़ बुद्धिवाले घरका त्याग करके सदैव धर्मका आचरण और धर्मका उपदेश करते हैं वे ही पुण्यशाली हैं। (३२) विपयसुख तथा परिग्रहका त्याग करके मैं कब निःसंग बनगा और कब दुःखोंका क्षय करनेके लिए जिनप्रोक्त तप करूँगा ? (३३) मैंने चिरकाल पर्यन्त विषयसुखका उपभोग और पृथ्वीका परिपालन किया है। उत्तम पुत्रोंको भी जन्म दिया है। अब मैं दूसरे किसकी प्रतीक्षा करता हूँ ? (३४) ऐसा सोचकर पूर्वकृत कर्मोंके अवसानके समय राजा धर्मानुरागमें अनुरक्त हुआ और भोगोंमें अनादर करने लगा। (३५)
इसके बाद कुछ समय व्यतीत होने पर बड़े भारी संघके साथ विहार करते हुए सर्वसत्त्वहित मुनिवर साकेतमें पधारे। (३६) मार्ग और धूपसे थके हुए संघको सरोवरके प्रदेशमें ठहराकर स्वयं दसवें होकर उन्होंने महेन्द्रोदय नामक सुन्दर उद्यानमें प्रवेश किया। (३७) त्रस, प्राण और जन्तुसे रहित, समतल और मनोरम शिलातलके ऊपर तथा नागवृक्षके नीचे वे चतुर्ज्ञानी मुनिवर ठहरे । (३८) कई श्रमण गुफामें रहे, कई पर्वतके ऊपर ठहरे तो दूसरोंने पर्वतकी कन्दराओंमें और चैत्यगृहोंमें आश्रय लिया। (३९) उन सर्वभूतशरणने चतुर्विध श्रमणसंघके साथ वहीं एक मास बिताया। उसके बाद वर्षाकाल आ पहुँचा । (४०) बादल खूब गरजने लगे, आकाश बिजलोकी चमकसे दीप्तिमान हो गया और सैकड़ों धाराओंसे जर्जरित पृथ्वी नवीन शस्यसे छा गई । (४१) नदियाँ बढ़ने लगी, पान्थजनोंके लिए मार्ग दुर्गम हो गये और प्रोषितपतिकाएँ उत्सुकमना होकर अफसोस करने लगीं। (४२) झरनोंका मझर शब्द, पपीहे, मेढ़क और मोरोंका चारों ओर फैलनेवाला शब्द हाथीकी लीलाका बिडम्बन करता था। (४३) ऐसे समयमें स्वाध्याय, ध्यान और तपमें निरत महासमर्थ साधु दुःखके विनाशका विचार करते थे। (४४)
एक दिन सुभटोंसे घिरे हुए राजाने प्रभातके समय भक्तिरागसे मुनिको वन्दन करनेके लिए उद्यानकी ओर गमन किया। (४५) दशरथ आ पहुँचा । साधुओंको भावपूर्वक वन्दन करके वहीं बैठा और सिद्धान्तको बातें सुनने लगा । (४६) लोक, द्रव्य, क्षेत्रका विभाग, कालका सद्भाव, कुलकर परम्परा तथा अनेक तरहके राजवंश-इनके बारेमें सुनकर तथा
१. सररिउद्देसं-प्रत्यः ।
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