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पउमचरियं
पउमदलसरिसनयणा, पउममुही पउमगब्भसंकासा । पउमस्स इमा भज्जा, नाया निययाणुभावेणं ॥ सबकला - ऽऽगमकुसला, चिमणं नाऊण केगई पुत्तं । दइयस्स साहइ फुडं, भरहकुमारस्स सब्भावं ॥ भरस्स मए सामिय!, मुणियं सोगाउरं मणं गाढं । तह तं करेहि सिग्धं, नह निबेयं न य उवेइ ॥ अत्थि जणयस्स भाया, कणओ नामेण एत्थ मिहिलाए । जाया य सुप्पभाए, तेण सुभद्दा पवरकन्ना ॥ सिग्धं सयंवरा सा, घोसाविज्जउ नरिन्दमज्झम्मि । जाव न गच्छइ भरहो, अज्जं चिय परमनिवेयं ॥ भणिऊण एवमेयं, सावत्ता दसरहेण कणयस्स । कहिया य निरवसेसा, तेण वि य पडिच्छिया आणा ॥ कणएण तत्थ तुरियं, सबे वि नराहिवा समाहूया । जे वि य गया निवेसं, ते वि तहिं चेवमल्लोणा ॥ उवविसु कमेणं, कणयसुया तत्थ आगया कन्ना । परिहरिऊण नरिन्दे, बरेइ भरहं सुभद्दा सा ॥ अच्चन्तविसमभावं, सेणिय ! पेच्छसु खलाण कम्माणं । पडिबुद्धो चिय भरहो, भेज्जाऍ विमोहिओ पच्छा ॥ पन्ति एकमेकं विलक्खवयणा नराहिवा सबे । जा जस्स पुबविहिया, भज्जा सा तस्स उवणमइ ॥ रामेण तओ सीया, परिणीया संपयाऍ परमाए । भरहेण वि कणयसुया, तेणेव निओगकरणेणं ॥ सबे काऊण तहिं, वीवाहमहुस्सवं नरवरिन्दा । निययपुराणि कमेणं, संपत्ता साहणसमग्गा ॥ दसरहस्स सुया बलदप्पिया, नववहूहि समं जणसेविया । पविसरन्ति कमेण सुकोसलं, विमलकित्तिधरा पुरिसोत्तमा ॥
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॥ इय पउमचरिए रामलक्ख व णुरयणलाभ विहागो नाम अट्ठावीसइमो उद्देसओ समत्तो ॥
१. भद्दा ए— प्रत्य० । २.
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पद्मकी भार्या हुई है । (१२९) सर्व कला एवं शास्त्रों में प्रवीण कैकईने पुत्रको चिन्तित देख पति से भरतकुमारके मनोभाव के बारे में स्पष्ट रूप से कहा कि हे स्वामी ! मुझे भरतका मन अत्यन्त शोकातुर प्रतीत होता है। इसलिए शीघ्र ही वैसा करो जिससे वह निर्वेद प्राप्त न करे । (१३०-१३१) यहाँ मिथिलामें कनक नामका जनकका एक भाई है। उसकी पत्नी सुप्रभासे उसे सुभद्रा नामकी सुन्दर कन्या है । (१३२ ) जबतक आज भरत परम निर्वेद प्राप्त नहीं करता है तबतक शीघ्र ही वह स्वयंवरा है ऐसी राजाओं में घोषणा करवाओ । (१३३) ऐसा ही हो इस प्रकार कहकर वह सारी बात दशरथने कनकसे कही। उसने भी आज्ञा अंगीकार की । ((३४) कनकने फौरन ही सब राजाओं को बुलाया। जो अपने स्थान पर चले गये थे वे भी वहाँ आ गये । (१३५) सबके बैठ जाने पर कनककी पुत्री वहाँ आई । दूसरे राजाओंका त्याग करके उस सुभद्राने भरतका वरण किया । (१३६)
कयसोहिया - प्रत्य० ।
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हे श्रेणिक ! दुष्ट कर्मोंकी अत्यन्त विपमता तो देखो कि प्रतिबुद्ध होने पर भी भार्याने बादमें उसे विमोहित कर दिया । (१३७) लज्जित मुखवाले सब राजा एक-दूसरे से कहने लगे कि जो जिसकी पूर्वकर्म द्वारा विहित भार्या होती है वही उसे मिलती है । (१३८) तत्र रामने सीताके साथ परम वैभवके साथ विवाह किया। भरतने भी कनकसुता सुभद्रा साथ उसी नियोग एवं करणमें शादी की । (१३९) वहाँ विवाह-महोत्सव करक क्रमशः सब राजा सेना के साथ अपने-अपने नगर में पहुँचे । (१४) बलका अभिमान रखनेवाले, लोगों द्वारा सेवित विमल कीर्ति धारण करनेवाले तथा पुरुषों में उत्तम ऐसे दशरथके पुत्र क्रमशः अपना कौशल फैलाने लगे । (१४१)
। पद्मचरितमें राम एवं लक्ष्मण द्वारा किया गया धनुष - रत्नका लाभ नामक अट्ठाइसवाँ उद्देश समाप्त हुआ ।
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