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________________ २९. दसरहवइराग-सबभूयसरणमुणिआगमणं एत्तो चिय आसाढे, राया धवलट्ठमोएँ भूईए । जिणचेइयाण महिम, काऊण तओ समाढत्तो ॥ १ ॥ सम्मज्जिओवलित्ता, जिणहरभूमी करन्ति केएत्थ । रनावलीनिओगं, चुण्णेणं पञ्चवण्णेणं ॥ २॥ केई पुण वरकुसुमे, गहिऊणं तोरणेसु मालाओ । विरयन्ति य भत्तीओ, विचित्तधाऊरसेणं तु ॥ ३ ॥ सबम्मि सुपडिउत्ते, सुयसहिओ नरवई जिणिन्दाणं । ण्हवणं करेद विहिणा, पडषडह-मुइङ्गसद्दालं ॥ ४ ॥ दिवसाणि अट्ट राया, पोसहिओ जिणवराण वरपूयं । काऊण भत्तिमन्तो, संथुणइ परेण विणएणं ॥ ५ ॥ तं ण्हवणसन्तिसलिलं, नरवइणा पेसियं सभजाणं । तरुणविलयाहि नेउं, छुटं चिय उत्तमङ्गेसु ॥ ६ ॥ कञ्चइहत्थावगर्य, जाव य गन्धोदयं चिरावेइ । ताव य वरग्गमहिसी, पत्ता कोवं च सोयं च ॥ ७ ॥ चिन्तेऊण पयत्ता, एयाओ नरवईण महिलाओ। सम्माणियाउ न य है, एत्तो जिणसन्तिसलिलेणं ।। ८ ॥ दइयस्स को व दोसो?, पुर्व न उवज्जियं मए सुकयं । तेणं चिय पम्हुट्ठा, जुवईणं मज्झयारम्मि ॥ ९ ॥ अवमाणजलणदई, एयं मे पावपूरियं हिययं । मरणेण उवसमिज्जइ, कत्तो पुण अन्नभेएणं? ॥ १० ॥ भण्डारियं विसाह, सद्दावेऊण भणइ ससिवयणा । एयं न कस्स वि तुमे, संपइ वत्थु कहेयबं ॥ ११ ॥ अन्भिन्तरं पविट्ठा, मरणे उच्छाहनिच्छियमईया । कण्ठकरगहियवत्था, ताव च्चिय नरवई पत्तो ॥ १२ ॥ पेसजणस्स नरिन्दो, सई निसुणेइ तत्थ अइकलुणं । हा देवि! किमारद्धं, जीयन्तयरं इमं कम्म? ॥ १३ ॥ घेत्तूण पत्थिवेणं, निययङ्कनिवेसिया समालत्ता । कीस अकजे सुन्दरि!, मरणुच्छाहा तुमं जाया ? ।। १४ ॥ सा भणइ सामिय ! तुमे, सवाण वि महिलियाण सन्तिजलं । संपेसियं महायस!, तस्साहं वञ्चिया नवरं ॥ १५ ॥ २९. दशरथका वैराग्य तथा मुनि सर्वभूतशरणका आगमन उधर आषाढकी शुक्ल अष्टमीके दिन राजाने वैभव के साथ जिनचैत्योंका माहात्म्य मनाना शुरू किया। (१) कई लोग बुहारकर पोती गई जिनमन्दिरकी भूमिपर पाँच रंगके चूर्ण द्वारा रंगवल्ली' (ऍपन) का कार्य करने लगे। (२) कई उत्तम पुष्प लेकर तोरणों में मालाएँ तथा विचित्र धातुरससे रचनाएँ करने लगे। (३) सब सम्पन्न होनेपर पुत्रसहित राजाने जिनेन्द्रोंका विधिपूर्वक दुन्दुभि एवं मृदंगसे अत्यन्त शब्दायमान ऐसा स्नान कराया। (४) आठ दिनका पोषध किये हुए राजाने जिनवरोंकी पूजा करके भक्तियुक्त हो परम विनयके साथ स्तुति की । (५) वह शान्तिस्नानका जल राजाने अपनी पलियोंके पास भेजा। तरुण स्त्रियोंने लेकर उसे मस्तकपर.डाला । (६) कंचुकी हाथमें रहे हुए गन्धोदक ले जानेमें विलम्ब कर रहा था। इसपर मुख्य पटरानीको क्रोध और शोक हो आया। (७) वह सोचने लगी कि ये महिलाएँ राजा द्वारा जिनेश्वरके शान्तिजलसे सम्मानित हुई हैं, किन्तु मैं नहीं हुई। (८) इसमें पतिका क्या दोष है ? मैंने पूर्व में पुण्य उपाजित नहीं किया होगा। उसीसे स्त्रियोंके बीच मैं भुला दो गई हूँ। (९) अपमानरूपी आगसे जला हुआ और पापसे भरा हुआ मेरा यह हृदय मरणसे ही शान्त होगा। दूसरे प्रकारसे कैसे शान्त हो सकेगा ? (१०) तब विशाख नामके भण्डारीको बुलाकर शशिवदना कैकईने कहा कि यह बात तुम इस समय किसीसे मत कहना । (११) मरणके लिए उत्साही और दृढ़ निश्चयवाली वह भीतर प्रवेश करके जैसे ही हाथमें लिया हुआ वस्त्र गलेमें बाँधती थी वैसे ही राजा आ पहुँचा । (१२) राजाने वहाँ नौकरका अत्यन्त करुण शब्द सुना कि, हे देवी! जीवनका नाश करनेवाला यह कार्य तुम किसलिए कर रही हो? (१३) राजाने उसे उठाकर अपनी गोदमें रखा और कहा कि, हे सुन्दरी ! किस तरह के अनुचित कार्यके कारण तुम्हें मरनेका उत्साह हुआ है ? (१४) उसने कहा कि, हे स्वामी! आपने सभी स्त्रियोंको शान्तिजल भेजा, किन्तु हे महायश ! मैं ही सिर्फ उससे वंचित रखी गई । (१०) अपमानसे दुःखित हो उच्चकुलमें उत्पन्न स्त्री प्राणधारण करके क्या करे? मरण ही अच्छा है। १. गुजरातीमें रंगोली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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