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२८. १२८] २८. राम-लक्खण-धणुरयणलाभविहाणं
२३५ ताव य चलन्तकुण्डल-मउडा-ऽलंकारभूसियसरीरो । पउमो गयवरगामी, अल्लीणो धणुवरन्तेणं ॥ ११३ ।। अह ते महाभुयला, निययसहावट्ठिया परमसोमा । धणुयं पि विगयजालं, गहियं रामेण सहस ति ॥ ११४ ॥ ठविऊण लोहपीढे, सजीवं धणुवरं कयं सिग्छ । ताव चिय संजायं, रय-रेणुसमोत्थयं गयणं ।। ११५ ॥ आकम्पिया य सेला, विवरीय चिय वहन्ति सरियाओ । उक्का-तडिच्छडालं, विदुमवण्णं दिसायकं ॥ ११६ ॥ सबत्तो घोररवा, चण्डा निवडन्ति तत्थ निग्घाया। सूरो पणट्टतेओ, जाओ य जणो भउबिग्गो ॥ ११७ ।। एयारिसम्मि जाए, पलयावते जए धणुवरं तं । विलएइ पउमनाहो, सबनरिन्दाण पञ्चक्खं ॥ ११८ ॥ एयन्तरम्मि गयणे, देवा मुश्चन्ति कुसुमवरवासं । साहु त्ति जंपमाणा, जयसदुग्घुट्टतूररवा ॥ ११९ ॥ रामेण धणुवरं तं, गाढं अप्फालियं सदप्पेणं । जह बरहिणेहि घुटुं, नवपाउसमेहसङ्काए ॥ १२० ॥ खुहिओ व सायरवरो, सो जणनिवहो कमेण आसत्थो । ताव च्चिय पसयच्छी, सीया रामं पलोएइ ॥ १२१ ॥ उल्लसियरोमकूवा, सिणेहसंबन्धजणियपरिओसा । लीलाएँ संचरन्ती, रामस्स अवट्ठिया पासे ॥ १२२ ॥ ऊयारिऊण धणुयं, पउमो निययासणे सुहनिविट्ठो । सीयाएँ समं रेहइ, रइसाहीणो अणङ्गो व ॥ १२३ ॥ तं लक्खणेण धणुय, घेत्तणं वलइयं सहरिसेणं । आयड्डियं सदप्पं, पखुभियसमुद्दनिग्धोसं ॥ १२४ ॥ दट्ठ ण विकर्म ते, सबे विज्जाहरा भउबिग्गा । देन्ति गुणसालिणीओ, अट्ठारस पवरकन्नाओ ॥ १२५ ॥ विजाहरेहि सिग्छ. गन्तणं चक्कवालवरनयरं । वित्तन्ते परिकहिए, चन्दगई दुम्मणो जाओ ॥ १२६ ॥ आलोइऊण भरहो, राम दढसत्ति-कन्तिपडिपुण्णं । अह सोइउं पयत्तो, तक्खणमेत्तेण पडिबुद्धो ॥ १२७ ॥
गोत्तं पिया य एक्को, एयस्स ममं पि दोण्ह वि जणाणं । नवरं अन्भुयकम्मो, रामो परलोयसुकएणं ॥ १२८ ॥ समान गमन करनेवाले राम धनुषके पास आये । (११३) उस समय वे बड़े-बड़े सर्प अपने पूर्व रूपमें स्थित हो अत्यन्त सौम्य बन गये। और अग्निकी ज्वालासे रहित धनुषको भी रामने सहसा उठा लिया। (११४) लोहेके बने हुए मंच पर स्थापित करके उन्होंने धनुष पर शीघ्र ही डोरी चढ़ा दी। उस समय आकाश धूल और रेतसे छा गया। (११५) पर्वत काँप उठे, नदियाँ उल्टी बहने लगी तथा दिशाएँ उल्का-बिजलीकी छटावाली और विद्रुमके समान वर्णवाली हो गई। (११६) उस समय चारों तरफ घोर शब्द होने लगे, प्रचण्ड बिजलियाँ गिरने लगीं, सूर्य तेजहीन हो गया और लोग भयसे उद्विग्न हो गये । (११७) विश्वमें जब ऐसा प्रलयका आवर्तन हो रहा था तब रामने सब राजाओंके समक्ष उस उत्कृष्ट धनुषको चढ़ा दिया। (११८) इसी पर आकाशमेंसे 'साधु' ऐसा कहते हुए तथा जयध्वनीसे वाद्योंकी आवाजको भी आच्छादित करने वाले देवोंने सुन्दर पुष्पोंकी वर्षा की । (११९) वर्षाकालमें नवीन मेघोंकी आशंकासे मोर जैसा घोष करते हैं वैसा ही रामने दर्पके साथ उस उत्तम धनुषका प्रचण्ड टंकार किया। (१२०) उससे सागर क्षुब्ध हो गया। वह मानवसमूह आहिस्ता-आहिस्ता आश्वस्त हुआ। उस समय विशालाक्षी सोताने रामको देखा। (१२१) जिसके रोमकूप उल्लसित हो गये हैं और स्नेहके सम्बन्धसे जिसे परितोष हुआ है ऐसी सीता लीलापूर्वक गमन करतो हुई रामके पास आई । (१२२) धनुषको उतारकर सीताके साथ अपने आसन पर आरामसे स्थित राम रतियुक्त अनंगको भांति शोभित हो रहे थे। (१२३) उस धनुषको उठा करके हर्षित लक्ष्मणने बलयकी भांति गोलाकार बना दिया और क्षुब्ध समुद्रके समान निर्घोष करते हुए उसको दर्पके साथ खींचा । (१२४) उसके पराक्रमको देखकर भयसे उद्विग्न सब विद्याधरोंने गुणवाली अठारह उत्तम कन्याएँ दीं। (१२५) शीघ्र ही चक्रवालनगरमें जाकर विद्याधरोंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। इससे चन्द्रगति मनमें उद्विग्न हो गया । (१२६) ।
___ दृढ़शक्ति एवं कान्तिसे परिपूर्ण रामको देखकर उसी समय प्रतिबुद्ध भरत सोचने लगा कि इसके और मेरेहम दोनों जनोंके गोत्र और पिता एक ही हैं। केवल परलोकमें किये हुए पुण्यके कारण राम अभ्युदय-कर्मवाले हैं । (१२७-१२८) अपने कर्मोके प्रभावसे ही पद्मदलके समान नेत्रोंवाली, पद्मके समान मुखवाली तथा पद्मके गर्भके समान गौरवर्णा यह
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