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पउमरियं
[२८.९. विज्जाहरा य मणुया, सबालंकारभूसियसरीरा। रइयासणेसु एत्तो, उवविठ्ठा परियणसमग्गा ॥ ९७ ॥ तत्तो सा घणुभवणे, सत्तहि कन्नासएहि परिकिण्णा । पेच्छइ नरिन्दवसभे, सीया कयमण्डणाडोवे ॥ ९८॥ तो कञ्चई पत्तो. बाले ! रामो इमो मणभिरामो । दसरहनिवस्स पुत्तो, देवकुमारोवमसिरीओ ॥ ९९ ॥ एयस्स जो समीवे, अणुओ च्चिय लक्खणो महाबाहू । भरहो सत्तुग्यो विय, दोण्णि वि एए वरकुमारा ॥ १०० ॥ हरिवाहणो महप्पा, बाले ! मेहप्पहो यं चित्तरहो । अह मन्दिरो नओ च्चिय, सिरिकन्तो दुम्मुहो भाणू ॥ १०१॥ राया चेव सुभद्दो, बुहो विसालो य सिरिधरो धीरो। अचलो य बन्धुरुद्दो, तह य सिही पत्थिवो सूरो ॥ १०२ ॥ एए अन्ने य बहू, विसुद्धकुलसंभवा नरवरिन्दा । तुज्झ कएण वरतणू, इहाऽऽगया धणुपरिक्खाए ॥ १०३ ॥ मन्तीण समुल्लवियं, धणुवं जो कुणइ एत्थ सज्जीवं । सो होही वरणीओ, कन्नाए नत्थि संदेहो ॥ १०४ ।। एवं च भणियमेत्ते, कमेण चावस्स अभिमुहा सधे । अह दुक्किउं पयत्ता, निम्मज्जियपरियरावेढा ॥ १०५ ॥ जह नह दुक्कन्ति भडा, तह तह अग्गी विमुञ्चए धणुयं । विजच्छडासरिच्छं, भीमोरगमुक्कनीसासं ॥ १०६ ॥ केएत्थ अग्गिभीया, करेसु पच्छाइऊण नयणाई । भजन्ति पडिवहेणं, अन्नोन्नं चेव लङ्घन्ता ।। १०७ ॥ अन्ने पुण दूरत्था, दट्टण फुरन्तपन्नयाडोवं । कम्पन्ति चलसरीरा, पणट्ठवाया दिसामूढा ॥ १०८ ॥ पन्नयवायाभिहया, पलासपत्तं व घत्तिया अवरे । मुच्छाविहलसरीरा, केई पुण थम्भिया सुहडा ॥ १०९ ॥ केई भणन्ति ठाणं, जइ वि हु जीवन्तया गमिस्सामो। तो दाणमणेयविहं, दाहामो दीण-किविणाणं ॥ ११० ॥ अन्ने भणन्ति एवं, अम्हे निययासु महिलियासु समं । कालं चिय नेस्सामो, किं वा एयाएँ रूवाए? ॥ १११ ।। अवरे भणन्ति एसा, केण वि माया कया अउण्णेणं । ठविया य मरणहेडं, बहुयाणं नरवरिन्दाणं ॥ ११२ ॥
सब प्रकारके अलंकारोंसे भूषित शरीरवाले विद्याधर और मनुष्य अपने-अपने परिजनोंके साथ रचे हुए आसनों पर बैठ गये । (९७) तब सात सौ कन्याओंसे घिरी हुई सीताने सजाये गये धनुषभवनमेंसे वृपभके समान श्रेष्ठ राजाओंको देखा । (९८) कंचुकी कहने लगा कि, हे बाले! यह सुन्दर और देवकुमारोंके समान कान्तिवाला दशरथका पुत्र राम है। (९९) उसके समीप महाबली छोटा भाई लक्ष्मण है। ये दोनों उत्तम कुमार भरत और शत्रुघ्न हैं। (१००) हे बाले ! महात्मा हरिवाहन, मेघप्रभ, चित्ररथ, मन्दिर, जय, श्रीकान्त, दुर्मुख, भानु, सुभद्रराजा, बुध, विशाल, धीर श्रीधर, अचल, बन्धु, रुद्र, तथा शिखी और सूर राजा-ये तथा दूसरे भी विशुद्ध कुलमें उत्पन्न बहुतसे राजा धनुषकी परीक्षा करनेकी दृष्टिसे, हे सुन्दरी ! तुम्हारे लिए यहाँ आये हैं। (१०१-१०३) मंत्रियोंने घोषणा की कि जो यहाँ धनुष पर डोरी चढ़ा सकेगा वह कन्या द्वारा वरणयोग्य होगा, इसमें सन्देह नहीं है । (१०४)
इस प्रकार कहने पर अंगराग किये हुए तथा परिजनोंसे घिरे हुए वे सब क्रमशः धनुषकी ओर अभिमुख हो उस ओर बढ़ने लगे । (१०५) जैसे-जैसे सुभट उस ओर बढ़ते थे वैसे-वैसे वह धनुष बिजलीकी कान्ति सरीखी और भयंकर सों द्वारा छोड़े गये निःश्वास जैसी आग छोड़ता था। (१०६) अग्निसे भयभीत कई सुभट तो हाथोंसे आँखें ढंककर एक दूसरेको लाँघते हुए विपरीत मार्गसे भागने लगे । (१०७) स्फुरायमाण सोका समूह देखकर दूर खड़े हुए दूसरे अस्थिरशरीरवाले, वाणी नष्ट हो गई हो ऐसे तथा दिङ्मूढ़ हो काँपने लगे । (१०८) सपोंकी फुत्कारसे आहत दूसरे पलाशके पत्तेकी भाँति दूर फेंके गये और मूर्छासे विह्वल कई सुभट स्तब्ध हो गये । (१०९) कई कहते थे कि यदि जीतेजी स्थान पर जा सकें तो दीन एवं कृपणजनोंको अनेक प्रकारका दान देंगे। (११०) दूसरे कहते थे कि हम अपनी स्त्रियोंके साथ समय बिताएँगे। इस रूपवतीसे हमें क्या प्रयोजन है ? (१११) दूसरे कहते थे कि किसी पापीने माया की है और बहुतसे राजाओंको मारनेके लिए यहाँ स्थापित की है। (११२) तब डुलते हुए कुण्डलवाले, मुकुट एवं अलंकारोंसे विभूषित देहवाले और सुन्दर हाथीके
१. णाडोवा-प्रत्य० । २. अग्गि-प्रायः ।
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