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२८. ९६.]
२८. राम-लक्खण-धणुरयणलाभविहाणं अहवा कहेहि मज्झं, तं विलयं जं मणेण चिन्तेसि । आणेमि तक्खणं चिय, मा एवं दुक्खिओ होहि ।। ८१ ।। जं एव समालत्तो, जणओ तो भणइ अत्तणो कन्तं । अमुणियकज्जा सि तुम, मह चिन्ताकारणं सुणसु ॥ ८२ ॥ मायातुरङ्गमेणं, नीओ है तेण कलि वेयर्ने । विजाहिवेण तत्तो, समयं काऊण परिमुक्को ।। ८३ ।। वज्जावत्तवरधj, जइ काहिइ अत्तणो वसे रामो । ता होही कन्ना ते, न पुणो अन्नेण भेएणं ॥ ८४ ॥ तं च अधन्नेण मए, बन्दावत्थेण इच्छियं सवं । विज्जाहरेहि धणुयं, इहाऽऽणियं नयरबाहिरओ ॥ ८५ ॥ जइ पुण सज्जीवं चिय, पउमो न करेइ तं महाधणुहं । तो खेयरेहि बाला, हिन्जिहिइ न एत्थ संदेहो ॥ ८६ ॥ दियहाणि वीस अवही, एयाण मए कया अपुण्णेणं । एत्तो परं तु नियमा, नेहिन्ति बलाधियारेणं ॥ ८७ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, बइदेही सोगपूरियसरीरा । परिदेविउं पयत्ता, नयणजलासित्तथणजुयला ॥ ८८ ॥ किं नाम मए सामिय!, दइवस्स कयं अभागधेज्जाए । जेण बहुदुक्खनिलयं, इमं सरीरं विणिम्मवियं ॥ ८९ ॥ पुत्तेण न संतुट्ठो, धूयं हरिऊण उज्जओ दइवो। मा मे होही एसा, नेहस्सऽवलम्बणं बाला ॥ ९० ॥ एकस्स जाव अन्तं, न जामि दुक्खस्स पावकम्मा है। ताव च्चिय गरुययर, बिइयं तु निरूवियं विहिणा ॥ ९१ ॥ रोवन्ती भणइ नियो, भद्दे! छड्डहि सोगसंबन्धं । नचावेइ समत्थं, लोयं पुबक्कयं कम्मं ॥ ९२ ॥ संटाविऊण महिलं, जणएण समन्तओ धणुवरस्स । उवसोहिया विसाला, धरणी कयमण्डणाडोवा ॥ ९३ ॥ तीए सयंवरत्थे, आहूया नरवई समन्तेणं । सिग्घं साएयपुरी, रामस्स वि पेसिओ दूओ ॥ ९४ ॥ सोऊण दूयवयणं, पउमो भडचडयरेण महएणं । लक्खण-भरहेहि समं, मिहिलानयरी समणुपत्तो ॥ ९५ ॥ माया-वित्तेहि समं. सबे वि गया नराहिवा मिहिलं । सम्माणिया य परम, जणएण पसन्नहियएणं ॥ ९६ ॥
कहो। उसे मैं तत्काल लाती हूँ। इस प्रकार तुम दुःखित मत्त हो । (८१) जब इस प्रकार कहा, तब जनकने अपनी पत्नीसे कहा कि तुम कार्य नहीं जानती, मेरो चिन्ताका कारण सुनो । (२) वह मायावो घोड़ा मुझे कल वैतादयपर ले गया था। वहाँके विद्याधर राजाने ऐसा संकेत करके छोड़ा है कि यदि राम वनावर्त नामक उत्तम धनुष्यको अपने बसमें करेगा तो कन्या उसकी होगी, दूसरे किसी प्रकारसे नहीं। (८३-८४) बन्धनावस्थामें पड़े हुए अधन्य मैंने वह सब मंजूर किया है। विद्याधर वह धनुष्य यहाँ नगरके बाहर लाये हैं। (८२) यदि राम उस महाधनुष्यकी डोरी नहीं चढ़ा सकेगा तो विद्याधर लड़कीको उठा ले जाएँगे, इसमें सन्देह नहीं है । (८६) अपुण्यशाली मैंने इनके साथ बीस दिनकी अवधि निश्चित की है। इसके बाद तो वे नियमानुसार लड़कीको बलपूर्वक ले जाएँगे । (८७)
यह कथन सुनकर विदेहाके शरीरमें शोक व्याप्त हो गया। वह रोने लगी और उसके आँसुओंसे दोनों स्तन भीग गये। (८) हे स्वामी! दुर्भाग्यशाली मैंने दैव, जिसने बहत दुःखोंका आवासरूप यह शरीर बनाया है, का क्या बिगाड़ा है ? (८९) पुत्रसे सन्तुष्ट न होकर देव पुत्रोका अपहरण करने के लिए उद्यत हुआ है जिससे कि मेरे स्नेहकी अवलम्बनरूप यह लड़की भी न रहे । (९०) पापी मैं एक दुःखका जबतक अन्त नहीं पाती हूँ तबतक तो विधिने दूसरी और भो भारी दिखाया है । (९१) इस तरह रोतो हुईको राजाने कहा कि, भद्रे ! शोककी बात छोड़ो। पहलेका किया हुआ कर्म लोगोंको नचाने में समर्थ है। (९२) पत्नीको आश्वासन देकर जनकने धनुषके चारों ओर मण्डपका आडम्बर करके विशाल पृथ्वी सजाई । (९३) शीघ्र ही उसके स्वयंवरके लिए चारों ओरसे राजाओंको बुलाया। रामके लिए साकेतपुरीमें दूत भेजा । (९४) दूतका बचन सुनकर बड़े भारी सुभट समूहसे युक्त हो लक्ष्मण एवं भरतके साथ राम मिथिलानगरीमें आ पहुँचे । (९५) माया और धनके साथ सभी राजा मिथलामें आये। प्रसन्नहृदय जनकने उनका बहुत सम्मान किया । (५६)
मकर विदेहाके शरीरमें शोक व्याप्त होगा दुःखोंका आवासरूप यह शाम मेरे स्नेहकी अवलम्बनरूप
१. तेण तत्थ वेयड्ढं-प्रत्य० । ३० .
२. . पुरि-प्रत्य० ।
३. नयरिं-प्रत्य० ।
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