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________________ २३२ पउमचरियं [२८. ६५कायस्स सुक्करुक्खे, पीई बालस्स विसफले होइ । तह इच्छइ अविसेसो, हीणो हीणेण संजोगो ॥ ६५॥ परिचयसु कुसंबन्धं, जणय ! तुम भूमिंगोयरेण समं । विज्जाहरेण समय, करेहि नेहं सययकालं ॥६६॥ देवो ब संपयाए. चन्दगई खेयराहिवो सूरो । एयस्स देहि कन्नं, का गणणा पायचारेणं? ॥ ६७ ॥ जणएण वि पडिभणिया, किं निन्दह भूमिगोयरे तुब्मे? । तित्थयर-चक्कवट्टी, हवन्ति मणुया हलधरा य ॥ ६८॥ भोत्तण भरहवास, बहवे इवखागवंससंभूया । असुर-सुरनमियचलणा, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता ॥ ६९ ॥ तत्थेव महावंसे, अणरण्णसुओ सुमङ्गलागन्मे । जाओ पढमपुरीए, नराहिवो दसरहो नामं ॥ ७० ॥ रूव-गुणसालिणीणं, पञ्च सया जस्स पवरजुवईणं । पुत्ता य पउममाई, चत्तारि जणा महासत्ता ॥ ७१ ॥ रामस्स विक्कमगुणं, नाऊणं तस्स परमउवयारं । तेण मए निययसुया, निरूविया तस्स वरकन्ना ॥ ७२ ॥ विज्जाहरा पवुत्ता, जणय! तुम सुणसु निच्छयं अम्हं । गवं चिय अइतुङ्ग, रामस्स फुडं समुबहसि ॥ ७३ ।। एयं चिय धणुरयणं, वज्जावत्तं सुरेसु कयरक्खं । नइ कुणइ वसे रामो, तो कन्ना गेण्हउ कयत्थो ॥ ७४ ॥ अह पुण वजावत्तं, धणुरयणं अत्तणो वसे रामो । न कुणइ नरवइमज्झे, तो से कन्ना कओ होइ ? ॥ ७५ । अह ते खेयरवसहा, नणयं धणुयं च गेण्हिउं तुरिया। मिहिलाभिमुहा चलिया, गओ य सपुरं च चन्दगई ॥ ७६ ॥ एत्तो कओवसोहं, जयसदुग्घुट्ठमङ्गलरवेणं । पविसरइ निययभवणं, जणओ बहुजणवयाइण्णो ॥ ७७ ॥ विविहाउहपरिहत्था, विजाहरपत्थिवा बलसमिद्धा । आवासिया समन्ता, मिहिलाए बाहिरुइसे ॥ ७८ ॥ ताव य खेयरवसओ, पण?माहप्प-दप्प-उच्छाहो । चिन्तेइ जणयराया, दोहुस्सासे विमुञ्चन्तो ॥ ७९ ॥ उत्तमनारीहि समं, तत्थ विदेहा गया निवसयासं । उवविठ्ठा भणइ पहू!, किं झायसि महिलियं अन्न ! ॥ ८० ॥ साथ ही सम्बन्ध चाहते हो । (६५) हे जनक ! तुम भूमिपर विहार करनेवालेके साथका कुसम्बन्ध छोड़ दो और सर्वदाके लिए विद्याधरके साथ स्नेह सम्बन्ध करो। (६६) शूर विद्याधरराज चन्द्रगति ऐश्वर्यमें देवके जैसा है। उसे कन्या दो। पैरोंपर विहार करनेवालोंकी गिनती ही क्या है ? (६७) जनकने भी प्रत्युत्तरमें कहा कि तुम भूमिचर लोगोंको निन्दा क्यों करते हो? तीर्थकर, चक्रवर्ती तथा हलधर मनुष्य ही होते हैं। (६८) भारतक्षेत्रका उपभोग करके इक्ष्वाकु वंशमें उत्पन्न तथा असुर एवं सुर जिनके चरणों में नमस्कार करते हैं ऐसे बहुतसे पुरुषोंने निर्मल और अनुत्तर शिवलोक प्राप्त किया है। (६९) उसी महावंशमें साकतनगरीमें सुमंगलाके गर्भसे अनरण्यका पुत्र दशरथ नामका राजा हुआ है। (७०) रूप एवं गुणशाली पाँच सौ उसकी उत्तम स्त्रियाँ तथा राम आदि चार महासमर्थ पुत्र हैं। (७१) रामके पराक्रम तथा उसके परम उपकारको मैं जानता हूँ, अतः मैंने उसे अपनी सुन्दर कन्या दी है। (७२) इसपर वे विद्याधर कहने लगे कि, हे जनक ! तुम हमारा निश्चय सुनो। रामके लिए तुम स्पष्ट ही बहुत भारी गर्व धारण करते हो। (७३) देवों द्वारा रक्षित इस वनावर्त धनुषरत्नको यदि राम बसमें कर लें तो कृतार्थ वह कन्या ग्रहण करे, और यदि राम राजाओंके मध्यमें वावर्त धनुषरत्नको अपने वशमें नहीं करेगा तो वह कन्या उसकी कैसे होगी? (७४-७५) इसके पश्चात् वे खेचरराजा जनक एवं धनुषको लेकर जल्दी ही मिथिलाकी ओर चले। चन्द्रगति भी अपने नयरमें गया। (७६) उधर सजाये गये अपने महल में बहुतसे लोगोंसे घिरे हुए जनक राजाने जय शब्दके उद्घोषसे युक्त मंगलगीतों की ध्वनिके साथ प्रवेश किया। (७७) विविध आयुधोंमें दक्ष तथा बलसमृद्ध विद्याधर राजाओंने मिथिलाके वाहरके प्रदेशमें चारों ओर पड़ाव डाला । (७८) तब विद्याधरोंके वशीभूत तथा माहात्म्य. दर्प एवं उत्साह जिसका नष्ट हो गया है ऐसा जनकराजा दीर्घ निःश्वास छोड़ता हुआ सोचने लगा। (७९) उत्तम स्त्रियोंके साथ विदेहा राजाके पास गई और बैठकर कहने लगी कि क्या किसी दूसरी स्त्रीका ध्यान कर रहे हो? (८०) अथवा जिसका मनसे चिन्तन कर रहे हो उस स्त्रीके बारेमें मुझे १. तस्स-प्रत्य । २. खेचरवशगः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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