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________________ उसमें २८.६४] २८. राम-लक्खण-धणुरयणलाभविहाणं २३१ जियमच्छर-राग-भयं, भय-दोग्गइमम्गपणासयरं । करणुज्जयधम्मपहस्स गुरुं, गुरुकम्ममहोयहिसोसणयं ॥ ५० ॥ एवं गायन्तस्स य, सीहासणअन्तराउ निफिडिओ। जणओ चन्दगईणं, दिट्ठो य तओ समालत्तो ॥ ५१ ।। भणिओय साहसु फुडं, को सि तुम भो ! कहिं च वत्थबो? । केणेव कारणेणं, अच्छसि एत्थं जिणाययणे? ॥ ५२ ॥ मिहिलापुरीऍ अहयं, जणओ नामेण इन्दकेउसुओ। एत्थाऽऽणिओ य हरिउं, केण वि मायातुरङ्गेणं ॥ ५३ ॥ संभासिय-कयविणया, दोण्णि वि य सुहासणेसु उवविट्ठा । अच्छन्ति पीइपमुहा, वेसम्भसमागयालावा ॥ ५४ ॥ नाऊण पत्थिवं सो, चन्दगई भणइ जणय ! निसुणेहि । दुहिया तुज्झ कुमारी, अस्थि त्ति मए सुयं पुवं ॥ ५५ ॥ सा मह सुयस्स दिज्जउ, कन्ना भामण्डलस्स अंणुरूवा। गाढ म्हि अणुग्गहिओ, जणय ! तुमे नत्थि संदेहो ॥ ५६ ॥ . सो भणइ खेयराहिव! मह वयणं सुणसु ताव एगमणो । दसरहसुयस्स दिन्ना, सा कन्ना रामदेवस्स ।। ५७ ।। भणइ पुणो चन्दगई, सा कन्ना केण कारणेण तुमे । दसरहसुयस्स दिन्ना ?, एत्थं मे कोउयं परमं ॥ ५८ ॥ मिहिलापुरीऍ देसो, अस्थि ममं धणसमिद्धजणपउरो । सो अद्धबब्बरेहि, मेच्छेहि विणासिओ सबो ॥ ५९ ॥ संगामम्मि पवत्ते, मेच्छा रामेण निज्जिया सबे । रक्खससमाणसत्ता, देवेहिं जे न जिप्पन्ति ॥ ६० ॥ पुणरवि य महं देसो, सबो आवासिओ भयविमुको । रामस्स पसाएणं, जाओ धण-रयणपडिपुण्गो ॥ ६१ ॥ तस्सुवयारस्स मए, सा कन्ना रूव-जोवण-गुणोहा । दिन्ना रामस्स फुड, एयं ते साहियं गुज्झं ॥ ६२ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, भणन्ति विज्जाहरा परमरुट्ठा । अविसेसो जणय! तुम, कजा-ऽकजं न लक्खेसि ॥ ६३ ॥ मेच्छेसु किं व कीरइ ?, पसवसरिच्छेसु हीणसत्तेसु । भग्गेसु तेसु समरे, सुहडाण जसो न निवडइ ॥ ६४ ॥ मार्गका नाश करनेवाले, क्रिया उद्यत ऐसे धर्म मार्गके उपदेशक तथा भारो कर्मरूपी महासागरको सुखानेवाले ऋषभदेवको वन्दन करो। (५०) . इस प्रकार चन्द्रगति जब गा रहा था तब सिंहासनके पीछेसे जनक बाहर निकला। देखने पर चन्द्रगतिने उससे कहा । (५१) उसने पूछा कि साफ साफ कहो कि तुम कौन हो? कहाँ के रहनेवाले हो ? और किस कारण इस जिनमन्दिरमें बैठे हुए हो ? (५२) इसके उत्तरमें जनकने कहा कि जनक नामका मैं इन्द्रकेतुका पुत्र किसी मायावी घोड़े द्वारा मिथिलासे अपहरण करके यहाँ लाया गया हूँ। (५३) संभाषण एवं विनयोपचार करके वे दोनों ही विश्वासमें आकर वार्तालाप करने लगे व प्रेममें तल्लीन होकर सुखासन पर बैठे । (५४) उसे राजा जानकर चन्द्रगतिने कहा कि, हे जनक! तुम सुनो तुम्हारी पुत्री कुमारी है ऐसा मैंने पहले सुना था। (५५) .वह अनुरूप कन्या मेरे पुत्र भामण्डलको तुम दो। हे जनक! इसमें सन्देह नहीं है कि तुमसे मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँ। (५६) इस पर उसने कहा कि, हे विद्याधरनरेश! मेरा कहना तुम ध्यान देकर सुनो। दशरथके पुत्र रामको मैंने वह कन्या दी है। (५७) चन्द्रगतिने पुनः पूछा कि वह कन्या तुमने दशरथके पुत्र रामको क्यों दी है? यह जाननेका मुझे बहुत कुतूहल है। (५८) इसपर जनकने कहा कि धनसे समृद्ध तथा लोगोंसे प्रचुर मेरा मिथिलापुरी देश है। वह सारा अर्धबर्बर म्लेच्छोंने विनष्टकर दिया था। (५५) राक्षसोंके समान समर्थ और देवोंसे भी न जीते जा सके ऐसे उन सब म्लेच्छोंको रामने हरा दिया । (६०) मेरा सारा देश भयसे विमुक्त करके पुनः बसाया। रामके प्रसादसे वह धन एवं रत्नोंसे परिपूर्ण हुआ है । (६१) उस उपकारके कारण रूप, यौवन एवं गुणोंके समूहसे युक्त वह कन्या मैंने रामको दी है। यह गुप्त बात मैंने तुम्हें स्पष्ट रूपसे कही है । (६२) यह कथन सुनकर अत्यन्त रष्ट विद्याधर कहने लगे कि, हे जनक! तुम अविवेकी हो। कार्य-अकार्य तुम नहीं देखते । (६३) पशुसदृश हीन सत्व म्लेच्छोंके ऊपर क्या बहादुरों की ? युद्ध में उन्हें नष्ट करनेसे सुभटोंको यश नहीं मिलता । (६४) कौएकी प्रीति सूखे पेड़में और बच्चेकी विषके फलमें होती है। उसी तरह सामान्य और होन तुम हीनके १. अणुमरिसा-प्रत्य। २. आसासिओ-प्रत्यः। ३. गुतं-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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