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पउमचरियं
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जय भणन्ति पुरिसा, को एसो ? हणह मुट्टिपहरेहिं । ताव भउब्बिग्गमणो, उप्पइडं नारओ नट्टो ॥ कइलासपओवरि, आसत्थो चिन्तिऊण आढत्तो । अह तं पोढकुमारी, वसणसमुद्दे निवाडेमि ॥ ६ ॥ परिचिन्तिऊण एवं, सिग्धं रहणेउरं गओ नयरं । ताहे उज्जाणहरे, सीयारूवं पडे लिहइ ॥ ७ ॥ तावच्चिय चन्दगई, समयं भामण्डलेण नयराओ । अह निग्गओ महप्पा, कीलणहेउं तमुज्जाणं ॥ ८ ॥ तत्थेव काणणहरे, कन्नारूवं पडे समालिहियं । दट्टण तं विसण्णो, सहसा भामण्डलकुमारो ॥ ९ ॥ मुञ्च दीहुस्सासे, सोयइ पलवइ य अन्नमन्नाई । रतिं दिया य निद्दं, न लहइ चिन्तापरिग्गहिओ ॥ १० ॥ सुसुयन्धगन्धमल्लाइयाइँ, आहार- मज्जणविहीओ । नेच्छइ अणन्नहियओ, परिहायइ अङ्गमङ्गेसु ॥ ११ ॥ नाऊण तं कुमारं मयणावत्थं तु नारओ ताहे । अह देह दरिसणं चिय, वीसत्थो तस्स गन्तृणं ॥ भामण्डलेण दिट्टो, तुरियं अब्भुट्टिओ पणमिऊणं । दिन्नासणोवविट्टो, भणिओ य मुणी ! निसामेहि ॥ ar वि उज्जाणहरे, आलिहिया बालिया मणभिरामा । जइ जाणसि भूयत्थं, साहसु कस्सेरिसा धूया ! ॥ एव पुच्छिओ सो, भाइ तओ नारओ पसंसन्तो । अस्थि मिहिलाऍ राया, जणओ सो इन्दकेउसुओ ॥ तस्स महिला विदेहा, तीए दुहिया इमा पवरकन्ना । जोबणगुणाणुरूवा, सीया नामेण विक्खाया ॥ अहवा किं परितुट्टो, पडिरूवं पेच्छिऊण आलेक्खे ? । जे तीऍ विब्भमगुणा, ते च्चिय को वण्णिउं तरइ ? ॥ एवं कहिऊण गओ, नहिच्छियं नारओ अइतुरन्तो । भामण्डलो वि दियहा, वम्महसरसल्लिओ गमइ ॥ इतं कन्नारयणं, न लहामि कई एहि दिवसेहिं । तो न य जीवामि फुडं, मयणभुयङ्गेण दट्ठो हं ॥ सीयारूवविणडियं पुत्तं नाऊण तत्थ चन्दगई । भामण्डलस्स पासं, समयं कन्ताऍ संपत्तो ॥
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उद्विग्न मनवाला नारद उड़कर भाग खड़ा हुआ । (५) कैलास पर्वत के ऊपर आश्वस्त होकर वह सोचने लगा कि मैं उस प्रगल्भ कुमारीको दुःखके समुद्र में गिराऊँगा । (६) ऐसा सोचकर वह शीघ्र ही रथनूपुर नगरमें गया। वहाँ उद्यान गृहमें पटपर सीताका चित्र खींचा। (७)
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उसी समय भामण्डलके साथ महात्मा चन्द्रगति उसी उद्यानमें क्रीड़ा करनेके लिए नगरमेंसे बाहर निकला । (८) वहीं उद्यानगृह में कन्याका पटपर खींचा हुआ वह चित्र देखकर भामण्डलकुमार अचानक विषण्ण हो गया । (९) वह दीर्घ निश्वास छोड़ने लगा. अण्डबण्ड सोचने और प्रलाप करने लगा । चिन्तासे पकड़ा गया वह रात और दिन नींद नहीं लेता था । (१) उसीमें लीन मनवाला वह सुगन्धित गन्ध एवं मालादि तथा आहार व स्नानविधिको इच्छा नहीं रखता था ये सब उसे अरुचिकर प्रतीत होते थे । उसका अंग-प्रत्यंग क्षीण होने लगा । (११) तब कामपीड़ित उस कुमारको देखकर नारदने विश्वस्तभाव से उसके पास जाकर दर्शन दिया । (१२) भामण्डलने उसे देखा और फौरन खड़े होकर प्रणाम किया । दिये गये आसन पर बैठे हुए मुनिसे उसने कहा कि आप सुनें । (१३) किसीने उद्यानगृहमें एक सुन्दर कन्याका चित्र आलिखित किया है। यदि श्राप वस्तुतः जानते हैं तो कहें कि यह किस कन्याका चित्र है । (१४) इस प्रकार जब नारद से पूछा गया तब उसने प्रशंसा करते हुए कहा कि मिथिलामें इन्द्रकेतुका पुत्र राजा जनक है । (१५) उसकी पत्नी विदेहा है। उसकी यौवन एवं गुणोंके अनुरूप सीता नामकी एक उत्तम कन्या विख्यात है । (१६) अथवा चित्रफलक के ऊपर उसका चित्र देखकर क्या तुम परितुष्ट हो गये हो ? उसमें जो विभ्रमगुग हैं उनका वर्णन कौन कर सकता है ? (१७) ऐसा कहकर नारद अति शीघ्र ही इच्छानुसार चला गया। कामदेवके बाणोंसे विद्ध भामण्डल भी दिन बिताने लगा । (१८) कतिपय दिनों में ही यदि उस कन्यारत्नको नहीं पाऊँगा तो मदनरूपी सर्पसे डँसा हुआ मैं अवश्य ही जी नहीं सकूँगा । (१९) पुत्रको सीता के रूपसे व्याकुल देखकर पत्नी के साथ चन्द्रगति भामण्डलके पास गया । (२०) १. दियहे - प्रत्य- ।
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