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२८. राम-लक्खण-धणुरयणलाभविहाणं भणइ तओ चन्दगई, पुत्तय! मा एव दुक्खिओ होहि । कन्ना वरेमि गन्तु, जा तुज्झ अवट्टिया बियए ॥ २१ ॥ संथाविऊण पुतं, चन्दगई, भणइ अत्तणो महिलं । विज्जाहर-मणुयाणं, कह संबन्धो इमो होइ ॥ २२ ॥ भूमीगोयरनिलयं, अम्हं न हि जुज्जए तहि गन्तुं । अहवा तेण न दिन्ना, का वयणसिरी तया अम्हं? ॥ २३ ॥ तम्हा अकालहीणं, कंचि उवायं करेमि भद्दे ! हं । कन्नाएँ तीऍ पियर, एत्थेव ठिओ समाणेमि ।। २४ ॥ चवलगइनामधेयं, सद्दावेऊण तस्स एयन्ते । सबं कहेइ राया, भामण्डलदुक्खमाईयं ॥ २५ ॥ सामियआणाए लहुं, मिहिलानयरिं गओ चवलवेगो । काऊण आसरूवं, वित्तासन्तो भमइ लोयं ।। २६ ॥ दट्टण नरवरिन्दो, आसं उद्दामयं नयरमझे । तो भणइ गेण्हह इमं अदिट्टपुर्व महातुरयं ॥ २७ ॥ नरवइवयणेण तओ, गहिओ पुरिसेहि पग्गहकरेहिं । ठविओ य मन्दुराए, कुंकुमचच्चिकछरियङ्गो ॥ २८ ॥
सो तत्थ मासमेगं, अवडिओ ताव तुरियवेगेणं । संपत्तो भणइ निवं, गयवरपयवासिओ एक्को ॥ २९ ॥ - सामिय! सुणेहि दिट्ठो, हत्थी एरावणो व रणम्मि । थोवन्तरेण पेच्छह, तं घेप्पन्तं कढिणदप्पं ॥ ३० ॥
सो एव भणियमेत्तो, विणिग्गओ नरवई गयारूढो । पत्तो य तं पएस, पेच्छइ वरवारणं मत्तं ॥ ३१ ॥ दट्टण सरसि दुग्गे, हत्थी तो नरवई भणइ सिग्छ । आणेह किंचि तुरय, बलपरिहत्थं विलम्गामि ॥ ३२ ॥ ताव चिय सो तुरओ, उवणीओ कढिणदप्षमाहप्पो । मोत्तूण कुञ्जरवरं, तत्थाऽऽरूढो नरवरिन्दो ॥ ३३ ॥ आरूढस्स य तुरओ, उप्पइओ नहयलं चवलवेगो । हाहारवं महलं, काऊण भडा गया सपुरं ॥ ३४ ॥ तत्तो अणेयदेसा, वोलेऊणं जिणालयासन्ने । पायवसाहाऍ लह, आलग्गो नरवई धणियं ॥ ३५ ॥ सो तस्स तरुवराओ, ओइण्णो कञ्चणामयं तुङ्गं । पेच्छइ वरपासायं, उन्भासन्तं दस दिसाओ ॥ ३६॥
तब चन्द्रगतिने कहा कि पुत्र! तू दुःखी न हो। जो तेरे हृदयमें स्थित है उस कन्याका मैं जाकर वरण करता हूँ। (२१)
- इस प्रकार पुत्रको आश्वासन देकर चन्द्रगतिने अपनी पत्नीसे कहा कि विद्याधर एवं मनुष्योंके बीच यह सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? (२२) भूमि पर जिनके मकान दिखाई पड़ते हैं ऐसे मनुष्य होते हैं। हमारे लिए वहाँ जाना ठीक नहीं है। अथवा उसने न दी तो हमारे मुखकी शोभा क्या रहेगी? (२३) हे प्रिये! इसलिए मैं अविलम्ब ही कोई उपाय करता हूँ। यहीं बैठे बैठे उस कन्याके पिता को लाता हूँ। (२४) चपलगति नामके दूतको बुलाकर उसे एकान्तमें राजाने भामण्डलका दुःख आदि सब कुछ कहा । (२५) मालिककी आज्ञासे चपलवेग शीघ्र ही मिथिला नगरीमें गया। भश्वका रूप धारण करके लोगोंको त्रस्त करता हुआ वह घूमने लगा । (२६) नगरमें स्वच्छन्द घूमते हुए अश्वको देखकर राजाने कहा कि पहले न देखे गये ऐसे इस महा-अश्वको पकड़ो। (२७) तब राजाके आदेशसे पुरुषोंने उसे लगामसे पकड़ लिया। केसरके विलेपनसे लिप्त शरीरवाले उसको अश्वशालामें रखा । (२८) वह वहाँ एक महीने तक रहा। तब हाथीको पकड़ने वाले किसीने जल्दीसे आकर राजासे कहा कि, हे स्वामी! आप सुनें। जंगलमें ऐरावतके जैसा एक हाथी देखा गया है। थोड़ी दूर रहकर उस कठोर दर्पवाले हाथीको पकड़ते आप देखो । (२९३०) ऐसा कहकर वह चला गया। हाथी पर बैठकर राजा उस प्रदेशमें पहुँचा। वहाँ उसने एक मदोन्मत्त हाथी देखा (३१) दुर्गम सरोवरमें हाथीको देखकर राजाने कहा कि किसी बलशाली घोड़ेको लाओ, उस पर मैं आरूढ़ हूँगा । (३२) उसी समय कर्कश दर्प एवं गौरवसे युक्त वह घोड़ा लाया गया। हाथीको छोड़कर राजा उस पर आरूढ़ हुआ। (३३) आरूढ़ होते हो तीव्र वेगवाला घोड़ा
आकाशमें उड़ा। सुभट बहुत हाहारव करके अपने नगरमें गये । (३४) उसके पश्चात् अनेक देश और आसन्नवर्ती जिनालयोंको पारकर राजा शीघ्र ही एक वृक्षकी शाखामें दृढ़ रूपसे आ लगा । (३५)
उस वृक्ष परसे नीचे उतर कर उसने सोनेका बना हुआ, ऊँचा और दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला एक उत्तम प्रासाद देखा । (३६) निर्भय वह तलवार खींचकर दरवाजेमें दाखिल हुआ। वहाँ उसने उद्यानमें एक बावड़ी
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