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________________ २२७ २८.४] २८. राम-लक्खण-धणुरयणलाभविहाणं गय-वसह-सोहचिन्धा, सर-सत्ति-करालकोन्तगहियकरा । जुज्झन्ति मेच्छसुहडा, खोहन्ता अजवबलोहं ॥ ३५ ॥ अह लक्खणस्स चावं, दुहाकयं आयरङ्गनरवइणा । जाव य गेण्हइ खग्गं, ताव य विरहो कओ सिग्धं ॥ ३६ ॥ दट्टण लक्खणं सो, विरहं सयमेव उट्टिओ रामो । सर-सत्ति-चक्क-मोग्गर-सएसु सेन्नं विवायन्तो ॥ ३७॥ रामेण आयरङ्गो, गरुयपहाराहओ कओ विमुहो । नस्सइ विभग्गमाणो, दस वि दिसाओ पलोयन्तो ॥ ३८ ॥ हय-विहय-विप्परद्धं, सेन्नं काऊण राहवो समरे । मग्गं अमुश्चमाणो, नियत्तिओ लक्खणेण तओ ॥ ३९ ॥ नाओ य महाणन्दो, पुहई आवासिया भयविमुक्का । वीसज्जिओ य रामो, लद्धजसो पस्थिओ नयरिं ॥ ४० ॥ तं पुरिसयारनिहसं, दट्टण नराहिवेण तुणं । रामस्स निययधूया, जणएण निरूविया सीया ॥ ४१ ।। एवं मणुस्सो सुकरण पुर्व, जयं रणे पावइ वीरसत्तो। विक्खायकित्ती भुवणे पसिद्धो, ससि व रामो विमलप्पभावो ॥ ४२ ॥ ।। इय पउमचरिए मेच्छपराजयकित्तणो नाम सत्तावीसइमो उद्देसओ समत्तो ।। २८. राम-लक्खण-धणुरयणलाभविहाणं अह अन्नया कयाई, पुहइ भमन्तेण नारएण सुया । रामस्स पवररूवा, जणएण निरूविया सीया ॥ १ ॥ ताहे नहङ्गणेणं, उप्पइउं नारओ गओ मिहिलं । कन्नालोयणहियओ, सीयाभवणं समल्लीणो ॥ २ ॥ दट्ठण पविसरन्तं, दीहजडामउडभासुरं सहसा । भयविहलवेविरङ्गो, सीया भवणोयरं लोणा ॥ ३ ॥ अणुमग्गेण रियन्तो, रुद्धो नारीहिं दारवालीहिं । कलहन्तो ताहि समं, गहिओ सो रायपुरिसेहिं ॥ ४ ॥ आयरंग राजा लक्ष्मणके आगे उपस्थित हुआ । (३४) हाथी, बैल, एवं सिंहके चिह्नवाले तथा बाण, शक्ति और भयंकर भाले हाथमें धारण किये हुए म्लेच्छ सुभट आर्यों के सैन्य-समूहको क्षुब्ध करने लगे । (३५) बादमें आयरंग राजाने लक्ष्मणके धनुष्यके टुकड़े कर दिये। जबतक वह तलवार लेता है तबतक तो उसे अविलम्ब ही रथहीन बना दिया। (३६) लक्ष्मणको रथहीन देखकर राम खड़े हुए और सैकड़ों बाणों, शक्तियों, चक्रों एवं तोमरोंसे सेनाको मारने लगे। (३७) रामने भारी प्रहारसे आहत करके आयरंगको विमुख कर दिया। भग्नमान वह दसों दिशाओंको देखता हुआ भागने लगा । (३८) युद्धमें सेनाको तहस-नहस करके पीछा न छोड़ते हुए रामको लक्ष्मणने लौटा लिया। (३९) . खुब आनन्द हुआ, भयविमुक्त पृथ्वो फिर बसी और प्राप्तयश रामने विसर्जित होनेपर अपने नगरकी ओर प्रस्थान किया। (४०) ऐसे अद्वितीय पौरुषको देखकर संतुष्ट राजा जनकने अपनी पुत्री सीता रामको दी। (४१) इस प्रकार पहलेके सुकृतसे वीर पुरुष युद्धमें जय प्राप्त करते हैं। विख्यात कीर्तिवाले और चन्द्रमाकी भाँति विमल प्रभाववाले राम तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं। (४२) । पद्मचरितमें म्लेच्छोंके पराजयका कीर्तन नामक सत्ताइसवाँ उद्देशक समाप्त हुआ। २८. राम एवं लक्ष्मणको धनुष-रत्नकी प्राप्ति ___ एक दिन पृथ्वी पर घूमते हुए नारदने सुना कि जनकने अत्यन्त रूपवती सीता रामको दी है। (१) तब उड़कर नभोमार्गसे नारद मिथिला गया और कन्याको देखनेकी इच्छासे सीताके भवनमें प्रवेश किया । (२) लटकती हुई मोटी जटाके भारसे भयंकर मालूम होनेवाले नारदको अचानक देखकर भयसे विह्वल और काँपते हुए शरीरवाली सीता महलके भीतर चली गई। (३) पीछे पीछे जाते हुए उसे द्वारकी रक्षा करनेवालीं त्रियोंने रोका। उनके साथ कलह करते हुए उसे राजपुरुषोंने पकड़ लिया। (४) जबतक लोग कहते रहे कि यह कौन है? मुक्कोंसे इसे खत्म कर दो; तबतक भयसे १. नयरं-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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