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________________ २२६ पउमचरियं १९ ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ भणइ 'उमो नराहिब !, थोवो च्चिय हुयवहो वणं बहुयं । डहइ य खणेण सबं, किं व बहुत्तेण निबडई ? ॥ रामस्स वयणनिहसं, सोऊणं नरवई भणइ एवं । संगामे सुहडनसं, पुत्तय ! पावन्तओ होहि ॥ काऊण पियपणामं, दो वि कुमारा महन्तबलसहिया । अह निग्गया पुराओ, जयसद्दुग्घुट्ठतूरवा ॥ ताव चिय पढमयरं, विणिग्गयाणं तु जणयतणयाणं । दो चेव जोयणाई, उभयवलाणऽन्तरं नायं ॥ रिवुवलसद्दुक्करिसं, असहन्ता जणयसन्तिया सुहडा । पविसन्ति मेच्छसेनं, गह व मेहाण संघायं ॥ मेच्छा आरियाण य, संगामो दारुणो समावडिओ | अन्नोन्नसत्थपन्तिय-संघट्टुट्टेन्त जालोहो ॥ अन्तरिओ च्चिय कणओ, मेच्छेहिं बहलतमसरिच्छेहिं । ताहे जणयनरिन्दो, वाहेइ समन्तसेनेणं ॥ तो बबरेहि जणओ, भग्गेहि पुणो पुणो समन्तेहिं । परिवेढिओ खणेणं, सूरो इव मेहनिवणं ॥ एयन्तरम्मि रामो, लक्खणसहिओ बलेण परिपुण्णो । संपत्तो च्चिय सहसा, तं मेच्छवलं अइमहन्तं ॥ आसासिऊण नणयं, रामो तं मेच्छसुहडसंघायं । पउमसरं पिव हत्थी, कुणइ चिय विहयविद्धत्थं ॥ तह लक्खणोवि बाणे, मुञ्चइ उवरिं अणारियभडाणं । नज्जइ य सायरवरे, वरिसर मेहो सरयकाले ॥ नियमहरुम्हवियं, भग्गं चिय मेच्छसाहणं समरे ! तह विय सोमित्तिसुओ, धावइ मग्गेण बलसहिओ ॥ दण निययसेन्नं, भग्गं चिय लक्खणेण परहुतं । सयमेव आयरङ्गो, सुहडेहि समं समुट्टे ॥ ३१ ॥ केएत्थ कज्जलाभा, सुयपिच्छसमप्पभा तहिं अन्ने । अवरे तम्बयवण्णा, वामणदेहा चिचिडनासा ॥ ३२ ॥ - वक्कलपत्तनियच्छा, मणिमय कडिसुत्तयाभरणदेहा । धाऊकयङ्गरागा, विरइयसिरिमञ्जरीकुसुमा ॥ ३३ ॥ एवंविहेहि समयं, जोहेहिं आयरङ्गनरवसहो । अह लक्खणस्स पुरओ, उवडिओ दप्पियामरिसो ॥ ३४ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ रामने कहा कि, हे राजन् ! थोड़ी-सी ही आग सारे बड़े वनको रामके ऐसे कसौटी जैसे कथनको सुनकर राजाने कहा कि, हे पुत्र ! क्षगमें जला डालती है । बहुतसे क्या होता है ? (१९) संग्राम में सुभटका यश तुम्हें प्राप्त हो । (२०) जिनके 'जय' शब्द से वाद्योंकी ध्वनि दब गई है ऐसे वे दोनों कुमार पिताको प्रणाम करके बड़ी भारी सेना के साथ नगरमेंसे निकले । (२१) पहले ही निकले हुए जनक और उसके पुत्र तथा शत्रुसैन्यके बीच दो हो योजनका अन्तर था । (२२) शत्रुदलके शब्द के महत्वको न सहनेवाले जनकके सुभट म्लेच्छोंके सैन्यमें, बादलोंके समूहमें प्रदकी भाँति, प्रविष्ट हुए । (२३) म्लेच्छों और आर्यका संग्राम एक-दूसरेपर फेंके जानेवाले शस्त्रोंके समूहके संघर्षसे उठनेवाली किरणोंकी वजह से भयंकर हो गया । (२४) प्रगाढ़ अन्धकार सरीखे म्लेच्छोंने जनकको अन्तर्हितकर दिया । तब जनक राजाने सामन्त-सैन्यके साथ आक्रमण किया । (२५) उस समय जिस तरह बादलोंके समूह सूर्यको घेर लेते हैं उसी तरह, बार-बार सामन्तोंको भग्न करके बर्बरने क्षणभर में जनकको घेर लिया । (२६) इसी समय लक्ष्मणके साथ एवं सैन्यसे परिपूर्ण राम एकदम उस अतिविशाल म्लेच्छसैन्य के पास आ पहुँचे । (२७) जनकको आश्वासन देकर राम म्लेच्छोंके उस सुभटदलको, हाथी जिस तरह पद्मसरोवरको वैभवसे नष्ट करता है उस तरह, नष्ट करने लगे । (२८) उस समय लक्ष्मणने भी अनार्य सुभटोंके ऊपर बाग फेंके, ऐसा मालूम होता था कि मानों शरत्कालमें समुद्र के ऊपर बादल बरस रहा हो । ( ३९ ) निर्दय प्रहारों से त्रस्त हो म्लेच्छसेना युद्धमेंसे भाग खड़ी हुई। फिर भी सेनाके साथ लक्ष्मणने उसका मार्ग द्वारा पीछा पकड़ा। (३०) अपनी सेनाको लक्ष्मणके द्वारा पराजित एवं विनष्ट देखकर आयरंग स्वयं ही उठ खड़ा हुआ । (३१) उनमें से कई काजलको -सी कान्तिवाले थे, दूसरे तोतेकी पँखकी-सी प्रभावाले थे, इतर तांबेके से वर्णके, पौने और चिपटे नाकवाले थे । (३२) कई वल्कल और पत्ते पहने हुए थे, कई मणिमय कटिसूत्र एवं आभरणोंसे युक्त शरीरवाले थे, कई धातुसे अंगराग किये हुए थे और दूसरोंने मंजरी एवं पुष्पों की शोभा की थी । (३३) ऐसे योद्धाओंके साथ दर्पयुक्त एवं क्रुद्ध १. वड्ढियामरिसो- प्रत्य• । [ २७. १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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