SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६.२] २१७ २६. सीया-भामण्डलुप्पत्तिविहाणं दोकप्पडपरिहाणो, पत्तो. रायग्गिहं महानयरं । वइवस्सओ ति नाम, तत्थ घणुवेयमइकुसलो ॥ १८ ॥ सीससहस्सेणं चिय, परिकिण्णो तस्स चेव पासम्मि । अह सिक्खिओ कमेणं, सबाण वि उत्तमो नाजो॥ १९ ॥ रायगिहसामिओ तं, सुणिऊणं चावलक्खमइकुसलं । कारेइ सरक्खेवं, समयं चिय अन्तवासीहि ॥ २० ॥ दट्टण सरक्खेवं, भणइ निवो अह दुसिक्खिओ तुयं । सुणिऊण रायवयणं, पुणरवि य गुरुं समल्लीणो ॥ २१ ॥ वइवस्सयस्स दुहिया, काऊण वसे निसासु छिड्डणं । निग्गन्तूण पलाओ, साएयपुरि समणुपत्तो ॥ २२ ॥ तो दसरहस्स सबं, निययं दावेइ सत्थकुसलत्तं । परितुट्ठो नरवसभो, तस्स कुमारे समप्पेइ ॥ २३ ॥ ईसत्थसन्निहाणं, निययं जं तस्स चावमाईयं । संकन्तं चिय सबं, ताणं उदए ब ससिबिम्बं ॥ २४ ॥ ते तत्थ कुमारवरा, बहुविहविन्नाणलद्धमाहप्पा [ जाया विक्खायजसा, चत्तारि वि सायरा चेव ॥ २५ ॥ एवं कलासु कुसला मुणिऊण पुत्ता, विन्नाण-नाण-बल-सत्तिसमत्थचित्त । सम्माण-दाण-विभवेण गुरुस्स तुट्टो, पूर्व करेइ विमलेण मणेण राया ॥ २६ ॥ ॥ इय पउमचरिए चउभाइविहाणो नाम पञ्चबीसइमो उद्देसओ सकत्तो।। २६. सीया-भामण्डलुप्पत्तिविहाणं भामण्डलपूर्वभवचरितम् - एत्तो जणयस्स तुम, सेणिय! निसुणेहि ताव संबन्धं । होऊण एगचित्तो, कहेमि सबं जहावतं ॥ १ ॥ जणयस्स महादेवी, आसि विदेहि ति नाम नामेणं । गुरुभारा पसवन्ती, परिवालइ सुरवरो तइया ॥ २ ॥ था । (१८) वह एक हजार शिष्योंसे घिरा रहता था। उसीके पास उसने शिक्षा ग्रहण की और क्रमशः सबमें उत्तम हो गया। (१९) उसके धनुष्यके द्वारा किये जानेवाले अतिकुशल लक्ष्यवेधको सुनकर राजगृहके राजाने दूसरे अन्तेवासियोंके साथ शरक्षेप करवाया । (२०) उसके शरक्षेपको देखकर राजाने कहा कि तुमने अच्छी तरहसे शिक्षा प्राप्त नहीं की है। राजाका ऐसा वचन सुनकर वह पुनःगुरुके समीप गया । (२१) वैवस्वतकी पुत्रीको अपने वशमें करके रातके समय छिद्रमेंसे निकलकर वह भाग गया और साकेतनगरीमें आ पहुँचा । (२२) इसके पश्चात् उसने अपनी शस्त्रकुशलता दशरथको दिखलाई। सन्तुष्ट राजाने उसे कुमारों को सौंपा । (२३) पानीमें जिस तरह चन्द्रबिम्ब संक्रान्त होता है उसी तरह धनुष्य आदिका तथा बाण एवं शस्त्रोंका जो उसका अपना कौशल था वह सब उन कुमारोंमें संक्रान्त हुआ। (२४) वे चारों राजकुमार नानाविध विज्ञानों में कुशलता प्राप्त करके सागरके जैसे विख्यात यशवाले हुए । (२४) इस प्रकार विज्ञान, ज्ञान, बल, शक्ति एवं समस्त ज्ञानसे युक्त पुत्रोंको कलाओंमें कुशल जानकर तुष्ट राजाने संमान, दान एवं सम्पत्ति द्वारा गुरुकी विमल मनसे पूजा की । (२६) । पद्मचरितमें चारों भाइयोंका विधान नामक पच्चीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ। २६. सीता एवं भामण्डलका जन्म हे श्रेणिक ! अब तुम एकचित्त होकर जनकका वृत्तान्त सुनो। जैसा हुआ था वैसा मैं सब कुछ कहता हूँ। (१) जनककी पटरानी विदेही नामकी थी। जन्म देनेवाली वह गर्भवती थी तब एक देव उसके गर्भकी रक्षा करता था। (२) १. दुहियं-प्रत्य । २. कुसले मुणिऊण पुसे-प्रत्य० । ३. चित्ते-प्रत्य० । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy