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पउमचरियं
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तो भइ मगहराया, केण निमित्तेण सुरवरो गब्भं । रक्खइ साहेहि पहू !, एयं मे कोउयं परमं ॥ तो भइ गणाहिवई, राया चक्कद्धओ त्ति नामेणं । सो चक्कपुरनिवासी, भज्जा मणसुन्दरी तस्स ॥ तीए गुणाणुरूवा, धूया अइसुन्दरा गुरुगिहम्मि । सा पढइ अक्खराईं, हणिहत्था पयत्तेणं ॥ नरवइपुरोहियसुओ, साहामहिलाऍ कुच्छिसंभूओ । महुपिङ्गलो त्ति नामं, सो वि तहिं गुरुगिहे पढइ ॥ पढमं चिय आलावो, आलावा रई रईऍ वीसम्भो । वीसम्भाओ पणओ, पणयाओ वढए पेम्भं ॥ are चि सब्भावे, तं कन्नं पिङ्गलो हरेऊणं । अइदुग्गमं सुदूरे, वियब्भनयरं समणुपत्तो ॥ काऊ तत्थ गेहूं, मूढो विन्नाण-नाण-धणरहिओ । तण दारुएहि जीवइ, विक्कन्तो सो तहिं नयरे ॥ तइया तम्मि पुरवरे, पयाससीहस्स पढममहिलाए । पवरावलीऍ पुत्तो, अह कुण्डलमण्डिओ नामं ॥ सो तत्थ निग्गओ च्चिय, विहरन्तो अत्तणो सलीलाए । तं दट्टण वरतणू, विद्धो कुसुमाउहसरेहिं ॥ तो कण दूई, गूढं संपेसिया नरवईणं । वेयारिऊण बाला, समाणिया नरवइभवणं ॥ तीए समं नरिन्दो, वरकुण्डलमण्डिओ पवरभोगे । भुञ्जइ गुणाणुरत्तो, रईऍ समयं अणङ्गो व ॥ महुपिङ्गलो वि एत्तो, अंडवीय समागओ निययगेहं । कन्ता अपेच्छमाणो, पडिओ दुक्खण्णवे सहसा ॥ महिलं गवेसमाणो, रुवइ चिय गग्गरेण कण्ठेण । गन्तूण भणइ नरवइ !, केणइ बाला महं हरिया || भणिओ य सहामज्झे, मन्तीणं सो अणेयबुद्धीणं । अज्जाहि समं बाला, पोयणनयरे मए दिट्ठा ॥ सो एवभणियमेत्तो, सिग्धं चिय पोयणं गवेसेउं । पडियागओ नरिन्द, भणइ य कैन्ता ममं लहसु ॥ नरवइआणाऍ, तओ, पुरुसेहि गलग्गहप्पहारेहिं । निद्धाडिओ पुराओ, भमइ महिं दुक्खओ विमणो ॥
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इस पर मगधराजने पूछा कि, हे प्रभो ! किस कारण देव गर्भकी रक्षा करता था, यह आप कहें। मुझे यह बड़ा भारी कुतूहल हो रहा है । (३) तब गणधर ने कहा कि - चक्रध्वज नामका एक राजा था। वह चक्रपुरमें रहता था । उसकी भार्या मनःसुन्दरी थी । (४) उसकी गुणों के अनुरूप तथा अत्यन्त सुन्दर एक लड़की थी । गुरुके घर पर वह हाथमें लेखनी लेकर प्रयत्नपूर्वक अक्षरोंको पढ़ती थी । (५) राजा के पुरोहित तथा उसकी शाखा नामकी पत्नी की कोख से उत्पन्न मधुपिंगल नामका पुत्र था । वह भी वहीं गुरुके घर पर पढ़ता था । (६) पहले बातचीत, बातचीत से रति, रतिसे विश्वास, विश्वाससे प्रणय और प्रणयसे प्रेम बढ़ता है । (७) सद्भाव पैदा होने पर उस कन्याका अपहरण करके पिंगल बहुत दूर भाये हुए अत्यन्त दुर्गम विदर्भनगर में पहुँच गया । (5) विज्ञान, ज्ञान एवं धनसे रहित वह मूर्ख वहाँ घर बसाकर और घास एवं लकड़ी उस नगर में बेचकर आजीविका चलाता था । (९) उस समय उस नगर में प्रकाशसिंहकी अममहिषी प्रवरावलीसे उत्पन्न कुण्डलमण्डित नामका एक पुत्र था । (१०) अपने आप लीलापूर्वक भ्रमण करता हुआ वह उधरसे निकला । उस सुन्दरीको देखकर कामदेवके बाणोंसे वह बींध गया । (११) राजाने उसके पास गुप्त रूपसे दूती भेजी । वह धोखे से उस बालाको राजभवनमें ले आई। (१२) उसके साथ गुणानुरक्त कुण्डलमण्डित राजा, रतिके साथ कामदेवकी भाँति, उत्तम भोग भोगने लगा । (१३)
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उधर मधुपिंगल भी कहीं से अपने घर पर आया । पत्नीको न देखकर वह एकदम दुःखसागर में डूब गया । (१४) पत्नी खोजता हुआ बह सगद्गद् कण्ठसे रोने लगा । राजाके पास जाकर उसने कहा कि मेरी पत्नीका किसीने अपहरण किया है । (१५) सभा के बीच अत्यन्त बुद्धिशाली मंत्रियोंसे उसने (कुण्डलमण्डितने ) कहा कि मैंने साध्वियोंके साथ उस त्रीको पोतनपुर में देखा था । (१६) इस प्रकार कहने पर वह शीघ्र ही पोतनपुर में खोजननेके लिए गया । वापस लौटे मेरी पत्नी ढूँढ दो। (१७) तब राजाकी आज्ञा से गर्दन पकड़कर प्रहार करनेवाले पुरुषोंने विमनस्क और दुःखित वह पृथ्वी पर घूमने लगा । (१८) पृथ्वीपर परिभ्रमण करते कत्थइ य मु० । ३. कंतं प्रत्य० । ४. कंतं प्रत्य० ।
हुए उसने राजासे कहा कि मुझे उसे नगरमेंसे बाहर निकाल दिया ।
१. वरतगुं - प्राय० । २.
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