________________
२१२ पउमचरियं
[२३. १३भणिओ बिभीसणो मे, अहयं न सुणेमि ताण उप्पत्ती । दाऊण उत्तरमिणं, इहागओ तुज्झ पासम्मि ॥ १३ ॥ एवं ते परिकहियं, सम्मद्दिहिस्स तुज्झ नेहेणं । ताव करेहि उवाय, जाव य न बिभीसणो एड ॥ १४॥ दाऊण य उवएस, अइतुरियं नारओ गओ मिहिलं । जणयस्स वि निस्सेसं, कहेइ वत्तं मरणहेउं ॥ १५॥ मरणमहब्भयभीओ, नराहिवो दसरहो समप्पेउं । मन्तीण कोस-देस, विणिग्गओ तत्थ पच्छन्नो ॥ १६ ॥ ताव य मन्तीहि लहूं, लेप्पमयं दसरहस्स पडिबिम्बं । कारावियं मणोज, सत्ततले भवणपासाए ॥ १७ ॥ एसो च्चिय वित्तन्तो जणयस्स वि कारिओ य मन्तीहि । नट्टा भमन्ति दोणि वि, पुहई पच्छन्नरूवधरा ॥ १८ ॥ ताव य बिहीसणेणं, साएयपुरीएँ पेसिया पुरिसा। हिण्डन्ति गवेसन्ता, नराहिवं दिन्नदिट्ठीया ॥ १९ ॥ रायहरं असमत्था, पविसेउं जाव ते चिरावेन्ति । ताव य साएयपुरि, बिहीसणो आगओ तुरियं ॥ २० ॥ तडिविलसिएण सिग्धं, बिहीसणाणत्तियाएँ भवणवरं । पविसेऊग य छिन्नं, सोसं चिय कित्तिमनिवस्स ॥ २१ ॥ लक्खारसपगलन्त, सोसं तडिविलसिएण घेत्तणं । रयणीऍ सयं दर्दु, पुणरवि दावेन्ति सामिस्स ॥ २२ ॥ अन्तेउरे पलावं, सोऊण सिरं महीऍ मोत्तण । मणपवणजणियवेओ, बिहीसणो पत्थिओ लई ॥ २३ ॥ परिवग्गो वि पलावं, काऊणं पेयकम्मकरणिज्जं । दहरहसमासुयमणो, अच्छइ य दिसि पलोयन्तो ॥ २४ ॥ 'एत्तो बिभीसणो वि य, गुरूण सम्माण-दाण-पूयाई । कुणइ पयत्तेणं चिय, आणन्दं हरिसियमईओ ॥ २५॥
परभवजणियं जं दुकयं सुकयं वा, परिणमइ नराणं तं तहा नेव मिच्छ । इइ मुणिय विसेसं घोरसंसारवासं, कुणह विमलभावं मोक्खमग्गे जिणाणं ॥ २६ ॥
।। इय पउमचरिए बिहीसणवयणविहाणो नाम तेवीसइमो उद्देसओ समत्तो।। कहा कि मैंने उनको उत्पत्तिके बारेमें नहीं सुना है। यह उत्तर देकर मैं आपके पास आया हूँ। (१३) सम्यग्दृष्टिके ऊपर स्नेहके कारण मैंने तुमसे यह बात कही है। जबतक बिभीषण नहीं आता तबतक तुम उपाय करो। (१४)
उपदेश देकर नारद बहुत त्वरासे मिथिला गया और जनकसे भी मरणका हेतुभूत समग्र वृत्तान्त कह सुनाया। (१५) मरणके भयसे अत्यन्त डरकर दशरथ राजा मन्त्रियोंको कोश व देश देकर बाहर चला गया और वहीं छिप गया । (१६) तब मंत्रियोंने शीघ्र ही सात तलवाले प्रासादमें दशरथकी सुन्दर लेपमयी मूर्ति बनवाई । (१७) जनकका भी यही वृत्तान्त मंत्रियोंने किया। भागे हुए वे दोनों गुप्त रूप धारण करके पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे । (१८) उधर विभीषणने साकेतपुरीमें आदमी भेजे। दृष्टि लगाकर राजाको खोजते हुए वे घूमते थे। (१९) राजगृहमें प्रवेश पानेके लिए असमर्थ उन्हें विलम्ब हो रहा था, अतः साकेतपुरीमें विभीषण शीघ्र आया । (२०) बिभोषणकी आज्ञासे महलमें दाखिल होकर कृत्रिम राजाका मस्तक फौरन ही तलवारसे काट डाला गया । (२१) लाक्षारस जिसमेंसे टपक रहा है ऐसे मस्तकको तलवारसे उठाकर उसने रातमें स्वयं देखा और फिर स्वामोको दिया । (२२) अन्तःपुरमें रोना धोना सुनकर सिर जमीन पर रख दिया गया। मन एवं पवनके समान वेगवाले विभीषणने लंकाकी ओर प्रस्थान किया । (२३) परिजनवर्ग भी रुदन एवं प्रेतकर्म करके दशरथके लिए उत्सुकमना होकर दिशाओंको देखने लगा। (२४) उधर बिभीषण भो गुरुओंका उत्साह के साथ सम्मान, दान एवं पूजन आदि करके मनमें प्रसन्न होता हुआ आनन्द करने लगा । (२५)
परभवमें किया हुआ दुष्कृत अथवा सुकृत लोगोंको उसी तरहसे अर्थात् बुरे या अच्छे रूपसे परिणत हाता है, यह मिथ्या नहीं है। यहाँ अर्थात् इस जन्ममें भयंकर संसारवासको भलीभाँति जानकर जिनप्रोक्त मोक्षमार्गमें विमल भाव धारण करो। (२६)
। पद्मचरितमें बिभीषणका कथन-विधान नामक तेईसवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
(२२) अया। (२३)ीषण भाग
१. विलाप-प्रत्य।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org