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२३. १२ ]
२३. बिहोसणवयणविहाणं
जे भरहाइनराहिंवसूरा, उत्तमसत्ति - सिरीसंपन्ना । ते बिणधम्मफलेण महप्पा, होन्ति पुणो विमला - ऽमलभावा ॥ ११० ॥
॥ इय पउमचरिए सुकोसलमाहप्पजुत्तो दसरह उप्पत्तिभिहाणो नाम वावोसइमो उद्देसओ समत्तो ॥
२३. बिहीसणवयण विहाणं
५ ॥
अह अन्नया कयाई, सहाऍ मज्झम्मि दसरहो राया । चिट्ठइ सुहासणत्थो, ताव च्चिय नारओ पत्तो ॥ १ ॥ अब्भुट्टिओ य सहसा, नरवइणा आसणे सुहनिसण्णो । परिपुच्छिओ य भयवं !, कत्तो सि तुमं परिब्भमिओ ? ॥ २ ॥ दाऊणय आसीसं भणइ तओ नारओ निणहराणं । वन्दणनिमित्तहेडं, पुबविदेहं गओ अहयं ॥ ३ ॥ अह पुण्डरोगिणीए, सीमन्धरजिणवरस्स निश्खमणं । दिट्ठ मए महायस !, सुरअसुरसमाउलं तत्थ ॥ ४ ॥ सीमंधर भगवन्तं नमिऊणं चेइयाइँ तत्थ पुणो । मन्दरगिरिं गओ हं, पणमामि जिणालए तुट्टो ॥ सुरगणसेवियसिहरं, काऊण पयाहिणं नगवरिन्दं । तुरियं च पडिनियत्तो, अभिवन्दन्तो निणहराई ॥ तो नारएण भणिओ, साएयबई ! सुणेहि मह वयणं । अवसारेसु य लोयं, जेण रहस्सं निवेएमि ॥ ओसारियम्मि लोए, कहेइ तो नारओ नरवइस्स । वन्दणकरण नवरं तिकूडसिहरं गओ अहयं ॥ तत्थ जिणसन्तिभवणं, अभिवन्देऊण चिट्टमाणेणं । तुह पुण्णपभावेणं, तं मे अवहारियं वयणं ॥ नेमित्तिएण सिहं, सायरविहिणा उ रावणं समरे । जह दहरहस्स पुत्तो, मारिहिइ न एत्थ संदेहो ॥ जयदुहियानिमित्तं सुणिऊण बिहीसणो भणइ एवं । मारेमि दसरहं तं नाव 'सुओ से न संभवइ ॥ अहमवि बिभीसणेणं, भणिओ नाणासि कहिं दसरहो सो ! । जणओ य साहसु फुडं, भयवं ! मा कुणह वक्खेवं ॥
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उत्तम शक्ति एवं श्री से सम्पन्न जो महात्मा भरतादि शूरवीर राजा हुए हैं वे जिनधर्मके फलस्वरूप विमल और स्वच्छ भाववाले हुए हैं। (११०)
। पद्मचरितमें सुकोशलके महात्म्यसे युक्त दशरथकी उत्पत्तिका अभिधान नामक बाईसवाँ उद्देश समाप्त हुआ ।
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२३. विभीषणका कथन
अन्यदा कभी राजा दशरथ सभा में सुखासन पर बैठे थे, उस समय नारद वहाँ आया । (१) आसन पर आराम से बैठा हुआ राजा सहसा खड़ा हुआ और पूछा कि, भगवन् ! आप घूमते हुए कहाँसे पधारे हैं ? (२) तब आशीर्वाद देकर नारद ने कहा कि जिनमन्दिरों के वन्दनार्थ मैं पूर्वविदेह क्षेत्र में गया था । (३) हे महायश ! वहाँ मैंने पुण्डरी किणी नगरीमेंसे सुर एवं असुरोंसे युक्त सीमन्धरस्वामीका निष्क्रमण देखा । (४) सोमन्धर भगवान् तथा वहाँ आये हुये अन्य चैत्योंको वन्दन करके मैं मन्दराचल पर गया और तुष्ट होकर जिनालयों में प्रणाम किया । (५) देवगणके द्वारा जिसके शिखरकी सेवा की जाती है ऐसे उस उत्तम पर्वतकी प्रदक्षिणा करके जिनमन्दिरोंको वन्दन करता हुआ मैं शीघ्र ही वापस लौटा । (६) फिर साकेतपति दशरथको नारदने कहा कि मेरा कहना आप सुनं । आप लोगोंको दूर करें, जिससे मैं गुप्त बात कह सकूँ । (७) लोगोंको हटाने पर नारदने राजा से कहा कि वन्दन के लिए मैं त्रिकूटशिखर पर गया था । (2) वहाँ भगवान् शान्तिनाथके मन्दिर में वन्दन करके मैं ठहरा हुआ था कि आपके पुण्यप्रभावसे मैंने वह वचन सुना जो एक नैमित्तिकने कहा था 'सागर मार्ग से आकर दशरथका पुत्र जनककी पुत्री सीताके कारण रावणको युद्धमें मारेगा, इसमें सन्देह नहीं है।' यह सुनकर बिभीषणने कहा कि दशरथको ही मैं मार डालूँ जिससे उसे पुत्र न हो । ( ९-११) बिभीषणने मुझसे भी पूछा कि वह दशरथ और जनक कहाँ हैं यह आप जानते हैं ? हे भगवन् ! आप ब्योरेसे कहें । इसका आप प्रतिषेध न करें। (१२) मैंने बिभीषण से १. सुओ नेव संभवइ - प्रत्य• ।
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