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________________ २०६ पउमचरियं [२२. ३५. एवं उत्तासणए, रणे कंबाय-सत्त-तरुगहणे । फासुयठाणम्मि ठिया, पसत्थझाणुज्जयमईया ॥ ३५ ॥ वीरासणनोएणं, काउस्सग्गेण एगपासेणं । उववासेण य नीओ, एक्कणं पाउसो कालो ॥ ३६ ॥ सरयम्मि समावडिए, कत्तियमासस्स मुणिवरा एत्तो । संपुण्णनियमनोगा, नयरं पविसन्ति भिक्खट्टा ॥ ३७ ॥ लीलाएँ वच्चमाणा, दिट्ठा वग्घीऍ तीऍ मुणिवसहा । रुसिया नस्वेहि मही, विलिहइ नायं विमुञ्चन्ती ॥ ३८॥ अह सो सुकोसलमुणी, बग्घी दटुं, वहुज्जयमईयं । ताहे वोसिरियतणू , सुक्कज्झाणं समारुहइ ॥ ३९ ॥ दाढाकरालवयणा, उप्पइऊणं नहं चलसहावा । पडिया सुकोसलोवरि, विज्ज इव दारुणा बग्घी ॥ ४० ॥ पाडेऊण महियले, मंसं अहिलसइ अत्तणो वयणे । मोडेइ अट्टियाइं, तोडेइ य हारुसंघाए ॥४१॥ इय पेच्छसु संसारे, सेणिय! मोहस्स विलसियं एयं । जणणी खायइ मंसं, जत्थ सुइट्ठस्स पुत्तस्स ॥ ४२ ॥ खज्जन्तस्स भगवओ, सुक्कज्झाणावगाहियमणस्स । समणस्स जीवियन्ते, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥ ४३ ॥ एवं सहदेवीए, कोसलअङ्गाइँ खायमाणीए । जायं जाईसरणं, पुत्तयदन्ताइँ दट्टणं ॥ ४४ ॥ सा पच्छायावेणं, तिणि य दिवसाइँ अणसणं काउं । उववन्ना दियलोए, बग्घी मरिऊण सोहम्मे ॥ ४५ ॥ देवा चउप्पगारा, समागया मुणिवरस्स कुबन्ति । निधाणगमणमहिम, नाणाविहगन्धकुसुमेहिं ॥ ४६ ॥ कित्तिधरस्स वि एत्तो, समुग्गयं केवलं जगपगासं । महिमकराण य एक्का, जत्ता जाया सुरवराणं ॥ ४७ ॥ महिमं काऊण तओ, पणमिय सबायरेण तिक्खुत्तं । देवा च उप्पगारा, निययट्टाणाइँ संपत्ता ॥ ४८ ॥ एयं जो सुणइ नरो, भावेण सुकोसलस्स निवाणं । सो उवसग्गविमुक्को, लभइ य पुण्णफलं विउलं ॥ ४९ ॥ वन्य प्राणियों तथा वृक्षोंसे सघन उस भयंकर जंगलमें उत्तम ध्यानमें उद्यत ऐसी बुद्धिवाले वे निर्जीव स्थानमें ठहरे । (६५) वीगसनके योगसे, कायोत्सर्गसे, एक ही पार्श्वसे भूमिके साथ सम्बन्ध रखनेसे और उपवाससे उन्होंने एकाको वर्षाकाल व्यतीत किया। ३६) कार्तिक मासका शरत्काल आनेपर नियम एवं योग जिन्होंने सम्पूर्ण किया है ऐसे उन दोनों मुनिवरोंने भिक्षाके लिए नगरमें प्रवेश किया । (३७) आरामसे जाते हुए उन मुनिवृषभोंको देखकर वह व्याघ्री गुस्सेमे आकर गर्जना करती हुई नाखूनांसे जमीन कुरेदने लगी। (३८) तब मारनेके लिए उद्यत बुद्धिवाली उस व्याघ्रीको देखकर कायोत्सर्ग करके वह सुकोशल मुनि शुक्लध्यानमें आरूढ़ हो गये । (३९) दाँतोंके कारण भयंकर मुख तथा चंचल स्वभाववाली वह कर व्याघ्री आकाशमें कूदकर बिजलीकी भाँति सुकोशलके ऊपर गिरी । (५०) जमीनपर गिराकर वह अपने मुँहमें मांस रखने लगी, हड्डियोंको तोड़ने लगी और शिराओंको काटने लगी। (४१) हे श्रेणिक ! संसारमें मोहका यह विलास तो देखो जिसमें कि माता अपने अतिप्रिय पुत्रका मांस खाती है। (४२) खाये जाते उन शुक्लध्यानमें लगे हुए मनवाले श्रमण भगवानको जीवनके अन्तमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (४३) सुकोशलके अंगोंका भक्षण करनेवाली सहदेवीको पुत्रके दाँत देखकर जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। (४४) वह व्याघ्रो पश्चात्तापसे तीन दिन तक अनशन करके मरने पर सौधर्म देवलोकमें उत्पन्न हुई। (४५) चारों प्रकारके देवोंने वहाँ आकर मुनिवरका नानाविध सुगन्धित पुष्पोंसे निर्वाणगमनका उत्सव मनाया । (४६) इधर कीर्तिधरको भी विश्वको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हश्रा जिससे उत्सव करनेवाले देवोंके लिए एक यात्रा हो गई । (४१) उत्सव मनानेके बाद सम्पूर्ण आदरके साथ तीन प्रदक्षिणा देकर और प्रणाम करके चारों प्रकारके देव अपने अपने स्थानोंको चले गये। (४८) जो मनुष्य भावपूर्वक सुकोशलका यह निर्वाणवर्णन सुनता है वह उपसर्गों से विमुक्त होकर विपुल पुण्यफल प्राप्त करता है। (४९) १. कंज्याद-सत्त्व-तरुगहने । २. नखैः । ३. नादम् । ४. वग्धि-प्रत्य। ५. समारूढो-प्रत्यः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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