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२२. सुकोसलमुणिमाहप्प-दसरउप्पत्तिवणणं हिरण्यगर्भःदेवी विचित्तमाला, संपुण्णे तत्थ कालसमयम्मि । पुत्तं चेव पसूया, हिरण्णगब्भो ति नामेणं ॥ ५० ॥ पत्तो सरीरविद्धिं, कमेण रजस्स सामिओ जाओ । हरिवाहणस्स दुहिया, परिणेइ मिगावई कन्नं ॥ ५१ ।। तोए समं रायसिरिं, भुञ्जन्तो अन्नया नरवरिन्दो । भमरनिहकेसमज्झे, पेच्छइ पलियर एक्कं ॥ ५२ ।। अह सोइउं पयत्तो, मच्चूणं पेसिओ महं दूओ । बल-सत्ति-कन्तिरहिओ, होहामि न एत्थ संदेहो ॥ ५३ ।। विसएसु वञ्चिओ हं, कालं अइदारुणं सुहपसत्तो । बन्धवनेहविणडिओ, धम्मधुरं नेव पडिवन्नो ॥ ५४ ।। सिंहिका-नघुषोएवं हिरण्णगब्भो, नघुसकुमारं मिगावईपुत्तं । अहिसिञ्चिऊण रजे, निक्खन्तो विमलमुणिपासे ।। ५५ ॥ गब्भन्थे च्चिय असिवं, न घोसियं जस्स जणवए जम्हा । नघुसो त्ति तेण नामं, गुरूहि रइयं सुमणसेहिं ॥ ५६ ॥ नधुसो परिट्ठवेठ, निययपुरे सीहियं महादेविं । उत्तरदिसं पयट्टो, जेउं सामन्तसंघाए ।। ५७ ॥ दाहिणदेसाहिवई, नधुसं नाऊण दूरदेसत्थं । घेत्तुं साएयपुरि, समागया साहणसमग्गा ॥ ५८ ॥ नघुसस्स महादेवी, विणिग्गया सीहिया बलसमग्गा । अह जुज्झिउं पयत्ता, तेहि समं नरवरिन्देहिं ।। ५९ ।। निद्दयपहरेहि हया, समरे हन्तूण सोहिया सत्त । रक्खइ साएयपुरी, निययपयावुज्जयमईया || ६० ॥ नघुसो वि उत्तरदिसं, काऊण वसे समागओ नयरिं । सुणिऊण सीहियाए, परक्कम दारुणं रुट्टो ॥ ६१ ।। भणइ य अहो अलज्जा, न य कुलवहुयाएँ एरिसं जुत्तं । अविखण्डियसीलाए, परपुरिसनियत्तचित्ताए ॥ ६२ ।। परिभूया नरवइणा, दोसं काऊण सा महादेवी । अह अन्नया कयाई, नघुसस्स जरो समुप्पन्नो ।। ६३ ॥ मन्ताण ओसहाण य, वेजपउत्ताण नेव उवसन्तो । दाहज्जरो महन्तो, अहिययरं वेयणं देइ ।। ६४ ॥
समय पूर्ण होने पर देवी विचित्रमालाने हिरण्यगर्भ नामक पुत्रको जन्म दिया । (५०) क्रमशः उसके शरीरकी वृद्धि हुई, राज्यका वह स्वामी हुआ और हरिवाहनकी पुत्री मृगावतोके साथ उसने विवाह किया । (५१) उसके साथ राज्य लक्ष्मीका उपभोग करते हुए राजाने एक दिन भौं रेके समान काले बालों में एक सफेद बाल देखा । (५२) इस पर वह सोचने लगा कि मृत्युने मेरे पास दूत भेजा है। इसमें सन्देह नहीं है कि मैं बल, शक्ति और कान्तिसे रहित हो जाऊँगा । (५३) विपयोंसे ठगे गये, सुखमें आसक्त तथा बन्धुजनोंके स्नेहसे विडम्बित मैंने धर्मकी धुराका अवलम्बन नहीं लिया। अतिभयंकर मृत्यु उपस्थित हुई है। (५४)
इस प्रकार विचार करके मृगावतीके पुत्र नघुष कुमारको राज्य पर अभिषिक्त करके हिरण्यगर्भने विमल मुनिके पास दीक्षा ली। (५५) जिसके गर्भमें रहने पर जनपदमें अशिव घोषित नहीं किया गया था, अतः आनन्दमें आये हुए गुरुजनोंने उसका नाम नघुष रखा। (५६) महादेवी सिंहिकाको अपने नगर में प्रतिष्ठित करके नधुष सामन्तसमूहको जीतनेके लिए उत्तर दिशाकी ओर गया । (५१) दूर देशमें नघुष है ऐसा जानकर दक्षिणदेशका स्वामी साकेतनगरीको लेनेके लिए समग्र सैन्यके साथ
आया । (५८) नघुषकी पटरानी सिंहिका सारी सेनाके साथ बाहर निकली और उन राजाओंके साथ लड़ने लगी। (४५) निर्दय प्रहारोंसे आहत होने पर भी शत्रओंको मारकर अपने प्रतापके कारण उद्युक्त बुद्धिवाली सिंहिकाने साकेतपुरीकी रक्षा की। (६०) नघुष भी उत्तरदिशाको वशमें करके साकेतनगरीमें लौट आया और सिंहिकाके पराक्रम के विषयमें सुनकर अत्यन्त रुष्ट हुआ। (६१) उसने कहा कि तुम्हारी निर्लज्जता पर खेद है। अखण्डितशीला और परपुरुषमें मन न लगानेवाली कुलवधूके लिए ऐसा उपयुक्त नहीं है । (६२) द्वेष करके राजाने उन महादेवीका तिरस्कार किया। एक दिन नघुपको बुखार आया । (६६) वैद्यों द्वारा प्रयुक्त मंत्र एवं औषधोंसे भी वह भारी दाहज्वर शान्त न हुआ। वह और भी अधिक
१. पुरं-प्रत्य० । २. सोऊण-प्रत्य० । ३. मंतेहि ओसहेहि य वेज्जपउत्तेहि नेव-प्रत्य•।
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