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२२.३४] २२. सुकोसलमुणिमाहाप-दसरहरप्पत्तिवण्णणं
२०५ वट्टइ एसाऽऽलावो, ताव य भडचडयरेण परिकिण्णा । पत्ता विचित्तमाला, गुरुभारा पणइणी तस्स ॥ १९ ॥ सा भणइ पायपडिया, सामिय! पुहई ममं च मोत्तूर्ण । मा ववससु पवज्ज, दुच्चरिया मुणिवराणं पि ॥ २० ॥ संथाविऊण गाद, सुकोसलो भणइ तुज्झ गब्भम्मि । भद्दे ! होही पुत्तो, सो अहिसित्तो मए रज्जे ॥ २१ ॥ आपुच्छिऊण सबं, बन्धुजणं परिजणं च महिलाओ। जिणदिक्खं पडिवन्नो, सुकोसलो पिउसयासम्मि ॥ २२ ॥ अह सो निच्छियहियओ, संवेगपरायणो दढधिईओ । अन्नन्नविहिनिओगं, काऊण तवं समाढत्तो ॥ २३ ॥ विविधानि तपांसिरयणावलि मुत्तावलि, कणयावलि कुलिसमज्झ जवमझं । जिणगुणसंपत्ती वि य, विही य तह सबओभद्दा ॥ २४ ॥ एत्तो तिलोयसारा, मुइङ्गमज्झा पिवीलियामज्झा । सीसंकारयलद्धी, दंसणनाणस्स लद्धी य ॥ २५ ॥ अह पञ्चमन्दरा वि य, केसरिकोला चरित्तलद्धी य । परिसहजया य पवयण-माया आइण्णसुहनामा ॥ २६ ॥ पञ्चनमोकारविही, तित्थट्टसुया य सोक्खसंपत्ती । धम्मोवासणलद्धी, तहेव अणुवट्टमाणा य ॥ २७ ॥ एयासु य अन्नासु य, विहीसु दसमाइपक्खमासेसु । बेमासिय तेमासिय, खवेइ छम्मासजोएसु ॥ २८ ॥ ते दो वि पिया-पुत्ता, नव-संजम-नियमसोसियसरीरा । विहरन्ति दढधिईया, गामा-ऽऽगरमण्डियं वसुहं ॥ २९ ।। सा पुत्तविओगेणं, सहदेवी तत्थ दुक्खिया सन्ती । अट्टज्झाणेण मया, उप्पन्ना कन्दरे बग्घी ॥ ३० ॥ एवं विहरन्ताणं, मुणीण संपत्थिओ जलयकालो । पसरन्तमेहनिवहो, गयणयलोच्छइयसबदिसो ॥ ३१ ॥ वरिसइ घणो पभूयं, तडिच्छडाडोवभोसणं गयणं । गुलगुलगुलन्तसद्दो, वित्थरइ समन्तओ सहसा ॥ ३२ ॥ धाराजजरियमही, उम्मग्गपलोट्टसलिलकल्लोला । उन्भिन्नकन्दलदला, मरगयमणिसामला जाया ॥ ३३ ।। एयारिसम्मि काले, जत्थत्थमिया मुणी निओगेणं । चिट्ठन्ति सेलमूले, चाउम्मासेण जोएणं ॥ ३४ ॥
ऐसा वार्तालाप हो ही रहा था कि सुभटोंके समूहसे घिरी हुई उसकी गर्भवती पत्नी विचित्रमाला आ पहुँची । (१९) पैरोंमें गिरकर वह कहने लगी कि, हे स्वामी! पृथ्वी एवं मेरा परित्याग करके मुनिवरोंके लिए भी जिसका आचरण करना कठिन है ऐसी प्रव्रज्याके लिए निर्णय मत करो। (२०) उसे बहुत आश्वासन देकर सुकोशलने कहा कि, हे भद्रे ! तेरे गर्भसे जो पुत्र होगा उसे मैंने राज्यपर अभिषिक्त किया । (२१) सब बन्धुजन, परिजन एवं महिलाओंसे पूछकर सुकोशलने पिताके पास जिनदीक्षा अंगीकार की। (२२) इसके बाद हृदयमें निष्ठावाला, संवेगपरायण और दृढ़ बुद्धिवाला वह भिन्न भिन्न विधियोंको योजना करके तप करने लगा । (२३) रत्नावलि, मुक्तावलि, कनकावलि, कुलिशमध्य, यवमध्य, जिनगुणसम्पत्ति
और सर्वतोभद्रा विधि तथा त्रिलोकसारा, मृदंगमध्या, पिपीलिकामध्या, शीर्षाकारकलब्धि तथा दर्शन-ज्ञानकी लब्धि, पंचनमस्कार विधि, तीर्थार्थता, सौख्यसम्पत्ति, धर्मोपासनालब्धि तथा अनुवर्तमाना, इन तथा दूसरी दशम, पक्ष, मास, द्वैमासिक, त्रैमासिक एवं षण्मासयोगकी विधि द्वारा वह कर्म क्षीण करने लगा । (२४८) तप, संयम एवं नियमसे शरीरको शोषित करनेवाले दृढ़मति वे दोनों पिता-पुत्र ग्राम एवं आकरोंसे मण्डित वसुधातलपर विहार करने लगे। (२९)
.. पुत्रवियोगसे दुःखित होती हुई वह सहदेवी आर्तध्यानसे मरकर एक कन्दरामें व्याघीके रूप में पैदा हुई । (३०) इस प्रकार विहार करते हुए उन दोनों मुनियोंके लिए बादलोंके समूह जिसमें छाये हैं और आकाशमें सब दिशाओंको जिसने आच्छादित कर दिया है ऐसा वर्षाकाल आ पहुँचा । (३१) बादल खूब बरसने लगे, आकाश बिजलीको कान्ति और कौंधसे भीषण हो गया और गुड गुड्का शब्द चारों ओर फैल गया । (३२) पृथ्वी पानीकी धारासे जर्जरित, उल्टे मार्गपर बहनेवाले जलकी तरंगोंसे व्याप्त और अंकुरोंके पत्ते फूटनेसे मरकत मणिके समान श्यामल हो गई । (३३) ऐसे समयमें जहाँ हों वहीं नियमतः ठहरनेवाले मुनि चातुर्मासके योग (समाधि) के साथ पर्वतकी तलहटीमें ठहरे। (३४) इस प्रकार राक्षसों,
१. पुहई-प्रत्य० । २. मुणिवईणं पि-प्रत्य० । ३. संठाविऊण-प्रत्य० । ४.. वज्रमध्यम् ।
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