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________________ २०२ पउमचरियं [२६.६९तं भणइ वज्जबाहू, परिहासेणोसहं नु जह पीयं । सुटु वि उदिण्णसंती, किं न हरइ वेयणं अङ्गे ! ॥ ६९ ॥ तो भणइ वज्जबाहू, मुणिवसभं पणमिऊण भावेणं । तुज्झ पसाएण अहं, निक्खमिउं अज्ज इच्छामि ॥ ७० ॥ नाऊण तस्स भावं, साहू गुणसायरो भणइ तुझं । धम्मे हवउ अविग्घ, पावसु तव-संजमं विउलं ॥ ७१ ॥ वनबाहुदीक्षा-- निक्खमइ बज्जबाहू, मुणिवरपासम्मि जायसंवेओ । सुन्दरपमुहेहि समं, छबीसाए कुमाराणं ॥ ७२ ॥ सोयरनेहेण बहू, भत्तारस्स य विओयदुक्खेणं । सा वि तहिं पवइया, मणोहरा मुणिसयासम्मि ॥ ७३ ।। सोऊण वजबाहू, पबइयं विजयपत्थिवो भणइ । तरुणत्ते मज्झ सुओ, कह भोगाणं विरत्तो सो? ॥ ७४ ॥ अहयं पुण नीसत्तो, इन्दियवसगो जराएँ परिगहिओ । ववगयदप्पुच्छाहो, कं सरणं वो पवज्जामि ? ।। ७५ ॥ पसिढिलचलन्तगत्तो, अयं पुण कासकुसुमसमकेसो । विवडियदसणसमूहो, तह वि विरायं न गच्छामि ॥ ७६ ॥ एवं विजयनरिन्दो, दाऊण पुरंदरस्स रायसिरिं । निक्खन्तो खायजसो, पासे निवाणमोहस्स ॥ ७७ ।। कीर्तिधरःएत्तो पुरंदरस्स वि, पुहुईदेवीऍ कुच्छिसंभूओ । जाओ च्चिय कित्तिधरो, जणम्मि विक्खायकित्तीओ ॥ ७८ ॥ राया कुसत्थलपुरे, धूया वि य तस्स नाम सहदेवी । कित्तिधरेण वरतणू, परिणीया सा विभूईए ॥ ७९ ॥ खेमंकरस्स पासे निखमइ पुरंदरो विगयनेहो । पारंपरागयं सो, कित्तिधरो भुञ्जए रज ॥ ८० ॥ अह अन्नया कयाई. कित्तिधरो आसणे सुहनिसन्नो । पेच्छह गयणयलत्थं, रविबिम्बं राहणा गहियं ॥ १ ॥ चिन्तेऊण पयत्तो, जो गहचक्कं करेइ नित्तेयं । सो दिणयरो असत्तो, तेयं राहुस्स विहडेउं ॥ ८२ ॥ एव घणकम्मबद्धो, पुरिसो मरणे उदिण्णसन्तम्मि । वारेऊण असत्तो, अवसेण विवजए नियमा ॥ ८३ ॥ तरहसे फलोन्मुख होने पर क्या वह शरीरमें वेदना दूर नहीं करती ? (६९) वज्रबाहुने उन मुनिश्रेष्ठको भावपूर्वक प्रणाम करके कहा कि, हे आर्य ! आपके प्रसादसे मैं प्रब्रज्या लेना चाहता हूँ। (७०) उसके भावको जानकर गुणसागर साधुने कहा कि तुम्हें धर्ममें निर्विघ्नता हो और विपुल तप एवं संयम प्राप्त करो। (७१) उदयसुन्दर आदि छब्बीस कुमारोंके साथ विरक्त वनबाहुने मुनिवरके पास दीक्षा ली। (७२) अत्यन्त भातृस्नेह तथा पतिके वियोगजन्य दुःखके कारण उस मनोहराने भी मुनिके पास दीक्षा ली। (७३) वनबाहुने दीक्षा ली है ऐसा सुनकर विजय राजा कहने लगा कि युवावस्थामें ही मेरा वह पुत्र भोगोंसे क्यों विरक्त हुआ ? (७४) अशक्त, इन्द्रियोंके वशीभूत, बुढ़ापेसे गृहीत और पराक्रमका उत्साह जिसका नष्ट हो गया है ऐसा मैं भी किसकी शरणमें जाऊँ ? (७५) शिथिल और काँपते हुए शरीरवाला, कासके फूल जैसे सफेद बालोंवाला और दाँतोंका समह जिसका गिर गया है ऐसा मैं हूँ, तथापि मैं वैराग ग्रहण नहीं करता । (७६) ऐसा सोचकर ख्यात यशवाले विजय राजाने पुरन्दरको राज्यश्री देकर निर्वाणमोहके पास दीक्षा ली । (७७) इधर पुरन्दरको भी पृथ्वीदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न और लोकमें विख्यात कीर्तिवाला कीर्तिधर नामका पुत्र हुआ। (७८) कुशस्थलमें एक राजा था। उसकी लड़कीका नाम सहदेवी था। कीर्तिधरने उस सुन्दरीके साथ समारोहपूर्वक विवाह किया । (७९) निर्मोहो पुरन्दरने क्षेमंकरके पास दीक्षा ली। वह कीर्तिधर परम्परासे प्राप्त राज्यका उपभोग करने लगा। (८०) एक दिन आसन पर आरामसे बैठे हुए कीर्तिधरने आकाशमें राहुसे ग्रस्त सूर्यबिम्बको देखा । (१) यह देखकर वह सोचने लगा कि जो समस्त ग्रहोंको निस्तेज करता है वह सूर्य भी राहुके तेजको खण्डित करने में अशक्त है। (८२) इसी प्रकार भारी कर्मोंसे बद्ध पुरुष मरणका उदय होने पर उसे दूर करने में अशक्त होता है और निरुपाय हो अवश्य १ घणकम्मलुद्धो-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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