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________________ २१. ६८ ] २१. सुव्त्रय वनबाहु-कित्तिधर माहप्पवगणं ५५ ॥ ५६ ॥ मुणिवसभदिन्नदिट्ठी, भणइ य तं उदयसुन्दरो वयणं । किं महसि समणदिक्खं ?, कुमार ! अहियं निरिक्खेसि ॥ तो भइ बज्जाहू, एव इमं जं तुमे समुल्लवियं । उदएण वि पडिभणिओ, तुज्झ सहाओ भविस्से हं ॥ ववाहभूसणेहिं विभूसिओ गयवराउ ओइण्णो । आरुहिऊण गिरिवरे, पणमइ य मुणिं पयत्तेणं ॥ अह सो नमिऊण मुणी, सुहासणत्थं पणट्टमय-रायं । पुच्छइ संसारठिहं, बन्धण- मोक्खं च जीवस्स ॥ संसारस्वरूपं बन्धमोक्षस्वरूपं च - ५७ ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ ६० ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ भइ त मुणिवसभो, जीवो जह अट्टकम्मपडिबद्धो । दुक्खाइँ अणुहवन्तो, परिहिण्डइ दीहसंसारं ॥ कम्माण उवसमेणं, लहइ जया माणुसत्तणं सारं । तह वि य बन्धवनडिओ, न कुणइ धम्मं विसयमूढो ॥ दुविहो निणवरधम्मो, सायारो तह य होइ निरयारो । सायारो गिहिधम्मो, मुणिवरधम्मो 'निरायारो ॥ सावयधम्मं काऊ-णं निच्छिओ अन्तकालसमयम्मि । कालगओ उववज्जइ, सोहम्माईसु सुरपवरो ॥ देवत्ताउ मणुत्तं मणुयत्ताओ पुणो वि देवत्तं । गन्तूण सत्तमभवे, पावइ सिद्धिं न संदेहो ॥ अह पुण जिणवरविहियं, दिक्खं घेत्तृण पवरसद्धाए । हन्तूण य कम्ममलं, पावइ सिद्धि धुयकिलेसो ॥ एवं मुणिवरविहियं सोऊणं नरवरो विगयमोहो । हिययं कुणइ दढयरं पवज्जानिच्छिउच्छाहं ॥ एक्कम्मि वरं जम्मे, दुक्खं अभिभुजिउं समणधम्मे । कम्मट्टपायववणं, लुणामि तवपरसुधाएहिं ॥ दहूण वज्जबाहुं, विरत्तभावं मुणिस्स पासत्थं । वरजुवईउ पलावं कुणन्ति समयं नववहूए ॥ अह उदयसुन्दरो तं विन्नवइ सगग्गरेण कण्ठेणं । परिहासेण महायस !, भणिओ मा एव ववसाहि ॥ गौरसे देख रहे हो, तो क्या श्रमणदीक्षा लेना चाहते हो ? (५५) तब वज्रबाहुने कहा कि तुमने जैसा कहा वैसा ही है। उदयसुन्दरने प्रत्युत्तर में कहा कि मैं तुम्हारा सहायक बनूँगा । (५६) ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ विवाह के आभूषणों से अलंकृत वज्रबाहु हाथी परसे नीचे उतरा और पर्वत के ऊपर चढ़कर उसने मुनिको भावपूर्वक प्रणाम किमा । (५७) सुखासन पर बैठे हुए और मान एवं राग जिनके नष्ट हो गये हैं ऐसे मुनिको प्रणाम करके उसने संसारकी स्थिति एवं जीवके बन्ध-मोक्षके बारे में पूछा। (५८) इस पर उन मुनिश्रेष्ठने कहा कि २०१ आठ प्रकार के कर्मों से जकड़ा हुआ जीव दुःखों का अनुभव करता हुआ दीर्घ संसारमें परिभ्रमण करता है। (५९) कर्मोंका उपशम होने पर जब उत्तम मनुष्य भव प्राप्त करता तब भी वन्धुजनोंसे ठगा गया वह विषयों में मूढ़ जीव धर्मका आचरण नहीं करता । (६०) जिनवरका धर्म दो प्रकारका है- सागार और अनगार | गृहस्थोंका धर्म सागार-धर्म है, जब कि मुनिवरोंका धर्म अनगार-धर्म है । (६१) श्रावकधर्मका आचरण करके अन्त समयमें निष्ठायुक्त होनेसे मरने पर वह सौधर्म आदि देवलोकमें उत्तम देवके रूपमें उत्पन्न होता है । (६२) देवजन्मसे मनुष्यजन्म और मनुष्यजन्मसे पुनः देवजन्ममें जाकर सातवें भवमें वह निस्सन्देह सिद्धि प्राप्त करता है । और जिनवर द्वारा विहित दीक्षा परम श्रद्धा के साथ ग्रहण करके और कर्ममलका नाश करके जो निष्कलंक होता है वह सिद्धि प्राप्त करता है । (६४) इस प्रकार मुनिवरका उपदेश सुनकर जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसे उस पुरुषश्रेष्ठते प्रब्रज्या के लिए निश्चित रूपसे उत्साही अपने हृदयको दृढ़तर किया कि एक ही जन्म में श्रमणधर्म में दुःख अनुभव करके अष्टकर्मरूपी वृक्षोंके वनको तपरूपी कुल्हाड़ी से नष्ट करूँ यह उत्तम है । (६५-६६ ) मुनिके पास विरक्तभावसे युक्त वज्रबाहुको देखकर नववधूके साथ दूसरी सुन्दर युवतियाँ रोने लगीं। (६७) तत्र उदयसुन्दरने उससे गद्गद् कण्ठसे विनती की कि, हे महायश ! मैंने तो परिहास में कहा था । ऐसा तुम व्यवसाय मत करो। (६८) इस पर वज्रबाहुने कहा कि परिहास में पी 'दवाई अच्छी १. निरगारः श्रमणधर्म इत्यर्थः । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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