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२०० पउमचरियं
[२१.४०एवं विविहषगारं, अवसप्पइ दियह-कालमाईहिं । चित्तपडो व विचित्तो, खीयइ अवसप्पिणी कालो ॥ ४० ॥ अह एत्तो वीसइमे, जिणन्तरे वट्टमाणसमयम्मि । विजओ नाम नरिन्दो, साएयपुराहिवो जाओ ॥ ४१ ॥ तस्स महादेवीए, हिमचुलाए सुया समुप्पन्ना । पढमो य वजबाहू, बीओ य पुरंदरो नाम ॥ ४२ ॥ तइया पुण नागपुरे, राया बहुवाहणो परिवसइ । नूडामणि से भज्जा, दुहिया य मणोहरा होइ ॥ ४३ ॥ अह वाहणेण दिन्ना, सा कन्ना विजयपढमपुत्तस्स । गन्तूण वज्जबाहू, परिणेइ पराएँ पीईए ॥ ४४ ॥ वत्तम्मि य वारिजे, तं कन्नं उदयसुन्दरो भाया । आढत्तो वि य नेउं, ससुरघरं तेण समसहिओ॥ ४५ ॥ मुनिवरदर्शनमएतो वसन्तकाले, वसन्तगिरिमत्थए मुणिवरिन्दो । वोलन्तएण दिट्ठो, झाणत्थो वजाहणं ॥ ४६॥ जह जह तस्स समीवं, गिरिस्स अलियइ वज्जवरबाहू । तह तह वनइ पीई, कुपुमियवरपायवोहेणं ॥ ४७ ॥ रत्तासोय-हिलदुम-वरदाडिम-किंसुएसु दिप्पन्तो। कोइलमुहलुम्गोओ, महुयरझंकारगीयरवो ॥ ४८ ॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोय-पुन्नाय-नायपुसमिद्धो । पाडल-सहयार-ऽज्जुग-कुन्दलयामण्डिउद्देसो ॥ ४९ ॥ बहुकुसुमसुरहिकेसर-मयरन्दुद्दामवासियदिसोहो । दाहिणपवणन्दोलिय-नच्चाविजन्ततरुनिवहो ।॥ ५० ॥ दट्टण वजबाहू, मुणिवसहं तो मणेण चिन्तेइ । धन्नो एस कयत्थो, जो कुणइ तवं अइमहन्तं ॥ ५१ ।। समसत्त-मित्तभावो, कञ्चण-तणसरिस विगयपरिसङ्गो। लाभा-ऽलाभे य समो. दुक्खे य सुहे य समचित्तो ॥ ५२ ।। एएण फलं लद्धं, माणुसजम्मस्स ताव निस्सेसं । जो झायइ परमत्थं, एगग्गमणो विगयमोहो ॥ ५३ ॥
हा! कट्ट चिय पावो, बद्धो हं पावकम्मपासेहिं । अइकढिण-दारुणेहि. चन्दणरुक्खो व नागेहिं ॥ ५४ ॥ जाते हैं। इस तरह अनेक रीतिसे दिवस और काल आदि व्यतीत हो रहा था और विचित्र चित्रपटकी भाँति अवसर्पिणीकाल भी बीत रहा था। (३५-४०)
उधर बीसवें जिन श्री मुनिसुव्रत स्वामोको विद्यमानताके समय विजय नामक राजा साकेतपुरीका स्वामी हुआ। (४१) उसकी पटरानी हिमचूलासे दो पुत्र उत्पन्न हुए। पहलेका नाम वज्रयाहु और दूसरेका नाम पुरन्दर था। (४२) उस समय नागपुरमें राजा बहुवाहन रहता था। उसकी भार्या चूड़ामणि और पुत्री मनोहरा थी । (४३) बहुवाहनने वह कन्या विजय राजाके बड़े पुत्रको दी। वनबाहुने जाकर बड़े प्रेमके साथ विवाह किया । (४४) विवाह सम्पन्न होने पर उदयसुन्दर नामका भाई उस कन्याको ले जानेके लिए उसीके साथ ससुरालकी ओर चला । (४५)
उधर वसन्तकालमें वसन्तगिरीके शिखर पर एक ध्यानस्थ मुनिवरको जाते हुए वनबाहुने देखा । (४६) जैसे जैसे उस पर्वतके समीप बबाहु श्राता जाता था वैसे-वैसे पुष्पित उत्तम वृत्तोंके समूहसे युक्त उस पर्वतमें उसकी प्रीति बढ़ती जाती थी। (४७) रक्ताशोक, हारिद्रद्रुम, उत्तम दाडिमके पेड़ तथा किंशुक वृक्षसे देदीप्यमान; कोयलके गीतसे मुखरित, भौरोंके झंकार-गीतसे शब्दायमान; उत्तम बकुल, तिलक, चम्पक, अशोक, पुनाग एवं नाग वृक्षोंसे अति समृद्ध पाटल, आम, अर्जुन तथा कुन्द लतासे विभूषित प्रदेशवाला; अनेक प्रकारके पुष्पोंके सुगन्धि केसर व मकरन्दकी तीब सुगन्धसे सुवासित दिशासमूहवाला तथा दक्षिण पवनसे आन्दोलित वृक्ष मानों नाच रहे हों-ऐसा यह पर्वत था। (४५-५०) उन मुनिवृषभको देखकर वत्रबाहु मनमें सोचने लगा कि यह जो अतिमहान् तप कर रहे हैं वह धन्य एवं कृतार्थ हैं। (५१) यह शत्रु एवं मित्रमें समभाष रखनेवाले हैं, परिग्रहसे मुक्त इनके लिये सोना और तिनका समान है, यह लाभ और हानिमें सम हैं तथा सुख और दुःखमें समचित्त हैं। (५२) सचमुच ही इन्होंने मनुष्य जन्मका समग्र फल प्राप्त किया है, क्योंकि मोहरहित हो एकाग्र मनसे यह परमार्थका ध्यान करते हैं।(५३) अफसोस है कि साँपोंसे बद्ध चन्दनवृक्षकी भाँति अत्यन्त कठोर और दारुण पापकोंकि बन्धनोंसे मैं पापी बद्ध हूँ। (५४) मुनिवरके ऊपर दृष्टि जमाये हए उससे उदयसुन्दरने ये वचन कहे कि, हे कुमार! तुम
१. तदा ।
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