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२२. सुकांसलमुणिमाहप्प-दसरह उप्पत्तिवण्णणं तम्हा असासयमिणं, माणुसनम्मं असारसुहसङ्गं । मोत्तूण रायलच्छी, निणवरदिक्खं पवज्जामि ॥ सोऊण वयणमेयं, मन्ती बन्धवजणा य दीणमुहा । जंपन्ति नरवराहिव !, मा ववससु एरिसं कम्मं ॥ सामिय! तुमे विहूणा, अवस्स पुइई विणस्सइ वराई । पुहईऍ विणट्टाए, धम्मविणासो सया होइ ॥ पण सन्ते, किं व न नट्टं नरिन्द ! सबस्सं ? । तम्हा करेहि रज्जं, रक्खसु पुहई पयत्तेणं ॥ नं एव अमचेहिं भणिओ गेण्हइ अभिग्गहं धीरो । सोऊण सुयं जायं, तो अहह्यं पवइस्सामि ॥ ८८ ॥ एवं रायवरसिरिं, भुञ्जन्तस्स य अणेयकालम्मि । जाओ सहदेवीए, गब्र्भाम्मि सुकोसलो पुत्तो ॥ ८९ ॥ थोवदिवसाणि बालो, निगूहिओ मन्तिणेहि कुसलेहिं । परिकहिओ चिय पुत्तो, एक्केण नरेण रायस्स || ९० ॥ सोऊण सुयं जायं, मउडाइविभूसणं निरवसेसं । तस्स पयच्छइ राया, गामसएणं तु घोसपुरं ॥ ९१ ॥ अह एकपक्खजायं, ठविऊण सुयं निवो निययरज्जे । पबइओ कित्तिधरो, परिचत्तपरिग्गहारम्भो ॥ ९२ ॥ घोरं तवं तप्पइ गिम्हकाले, मेहागमे चिह्न छन्नठाणे । हेमन्तमासेसु तवोवणत्थो, झाणं पसत्थं विमलं च रेइ ॥ ९३ ॥
॥ इय पउमचरिए सुब्वयवज्जयाहुकित्तिधर माहप्पवगणो एकवीसइमो उद्देसओ समत्तो ॥
८५ ॥ ८६ ॥
२२. सुकोसलमुणिमाहप्प-दसरह उत्पत्तिवण्णणं
अह एत्तो कित्तिधरो, मुणिवसभो मलविलित्तसबङ्गो । मज्झण्हदेसयाले, नयरं पविसरइ भिक्खर्व्वं ॥ १ ॥
मरता है । ( ३ ) यह मनुष्यजन्म अशाश्वत है और सुखदायी यह संसर्ग असार है; अतः राजलक्ष्मीका परित्याग करके मैं जिaarat दीक्षा के लिए निकल पडू । (६४) ऐसा कथन सुनकर दोन वदनवाले मंत्री और बन्धुजन कहने लगे कि, हे राजन् ! आप ऐसा कार्य न करें। (८५) हे स्वामी ! आपके बिना यह बेचारी पृथ्वी अवश्य नष्ट होगी। पृथ्वीके नष्ट होने पर धर्मका सर्वदा विनाश होता है । (८६) हे नरेन्द्र ! धर्मका नाश होने पर दूसरा सबकुछ क्या नष्ट नहीं होता ? अतएव आप राज्य करें और प्रयत्नपूर्वक पृथ्वीका रक्षण करें। (८७) अमात्योंने जो कुछ कहा उससे उस धीर राजाने अभिप्रद धारण किया कि पुत्रका जन्म हुआ है ऐसा सुनने पर मैं प्रब्रज्या लूँगा । (८)
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इस प्रकार दीर्घकालपर्यन्त राज्यकी उत्तम लक्ष्मीका उपभोग करते हुए उसे सहदेवीके गर्भसे सुकोशल नामका पुत्र हुआ । (८९) कुशल मंत्रियोंने थोड़े दिनोंतक बालकको छुपाकर रखा। राजाको किसी पुरुषने पुत्र के बारेमें कहा । (९०) पुत्र हुआ है ऐसा सुनकर राजाने मुकुट आदि समग्र विभूषणोंके साथ उसे सौ गाँवोंसे युक्त घोषपुर दिया । (९१) एक पखवाड़ेके पुत्र को अपने राज्यपर स्थापित करके परिग्रह एवं आरम्भ ( पापकर्म ) का परित्याग करनेवाले कीर्तिधर राजाने प्रव्रज्या अंगीकार की । (९२) ग्रीष्मकाल में वह घोर तप करता था, बादलोंके आगमन के समय ( वर्षाकाल में ) वह ढँके हुए स्थानमें रहता था और हेमन्तके महीनों में वह तपोवनमें रहकर प्रशस्त एवं विमल ध्यान करता था । (५३)
। पद्मचरितमें सुव्रत, वज्रबाहु एवं कीर्तिधरके माहात्म्यका वर्णन नामका इक्कीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ ।
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२२. सुकोसलका माहात्म्य तथा दशरथका जन्म
इसके पश्चात् एक बार जिसके सारे शरीरपर मैल जमा है ऐसे मुनिवर कीर्तिधरने मध्याह्नके समय भिक्षा के लिए नगरमें प्रवेश किया । (१) गवाक्षकी जाली मेंसे उस साधुको देखकर सहदेवी रुष्ट हो गई । उसने आदमियोंको भेजा कि
१. रायलच्छि —- प्रत्य० । २. मन्त्रिभिः । ३. घरेइ - मु० ।
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