________________
पउमचरियं
[२०. ९९. कुलकराणां तीर्थकराणां चायूषिपल्लस्स अट्ठभागो, तस्स वि य हवेज जो दसमभागो। तं कुलगरस्स आउं. पढमस्स जिणेहि परिकहियं ॥ ९९ ॥ एवं दसमो दसमो, भागो अवसरइ आउखन्धस्स । सेसाण कुलगराणं, नाभिस्स य पुबकोडीओ ॥ १००॥ चुलसीइ सयसहस्सा, पुवाणं आउयं तु उसभस्स । बावत्तरी य अजिए, छण्हं पुण दस य परिहाणी ॥ १०१॥ दोणि य एकं लक्खं, कमेण दोण्हं जिणाण पुबाउं । चुलसीती बावत्तरि, सट्ठी तीसा य दस एक्कं ॥ १०२ ॥ एए. हवन्ति लक्खा, वासाणं जिणवराण छण्हं पि । पञ्चाणउइ सहस्सा, चउरासीई य नायबा ॥ १०३ ।। पणपन्ना पणतीसा, दस य सहस्सा सहस्समेगं च । वासाण सयं एत्तो, हवन्ति बावत्तरि वासा ॥ १०४ ॥ जिनान्तरे द्वादशचक्रवर्तिनः तपूर्वभवादि चएवं तित्थयराणं, आउं सेणिय ! मए समक्खायं । जो जस्स अन्तरे पुण, चक्कहरो तं इओ सुणसु ॥ १०५॥ उसमे सुमङ्गलाए, जाओ भरहो य पढमचक्कहरो । अह पुण्डरीगिणीए, बाहू सो आसि अन्नभवे ॥ १०६ ॥ जिणवइरसेणपुत्तो, मरिऊणं पत्थिओ य सबढें । तत्तो चुओ समाणो, भरहो होऊण सिद्धिगओ१ ॥ १०७ ॥ पुहईपुरम्मि राया, विजओ नामेण जसहरं गुरवं । लहिऊण य निक्खन्तो, गओय विजयं वरविमाणं ॥ १०८ ॥ चइऊण कोसलाए, विजएणं जसवईऍ जाओ सो । सगरो पुत्तविओगे, काऊण तवं गओ मोक्खं२ ॥ १०९॥ अह पुण्डरीगिणीए, ससिप्पभो विमलमुणिवरसयासे । घेत्तण य निणदिक्खं, गेविजे सुरवरो जाओ ॥ ११०॥ तत्तो चुओ समाणो, सावत्थीए सुमित्तरायस्स । जाओ य भामिणीए, मघवं नामेण चक्कहरो ॥ १११ ॥ धम्मस्स य सन्तिस्स य, जिणन्तरे भुजिउं भरहवासं । काऊण जिणवरतवं, सणंकुमारं गओ कप्पं३ ॥ ११२ ॥
पल्योपमका आठवाँ भाग और फिर उसका भी जो दसवाँ भाग होगा वह जिनवरोंने प्रथम कुलकरकी आयु कही है। (९९) इस प्रकार आयु-स्कन्धका दसवाँ दसवाँ भाग शेष कुलकरोंका कम होता जाता है। नाभि कुलकरकी आयु एक कोटि पूर्वकी होती है। (१००)
श्री ऋषभदेवकी' आयु चौरासी लाख पूर्वकी है। श्री अजितनाथकी बहत्तर लाख पूर्वकी है। इनके पश्चात् छ:.." तीर्थंकरोंकी क्रमशः दस-दस लाख पूर्व कम होती जाती है । (१०१) इनके बाद दो जिनोंकी..१० आयु क्रमशः दो लाख पूर्व और एक लाख पूर्वकी है। इनके पश्चात् छ:११." जिनवरोंकी आयु चौरासी लाख, बहत्तर लाख, साठ लाख, तीस लाख एवं एक लाखकी है। इनके बादके तीर्थकरोंकी आयु क्रमशः पंचानवे" हजार, चौरासी१८ हजार, पचपन". हजार, पैंतीस हज़ार, दस२१ हज़ार, एक हजार, एक सौ और बहत्तर वर्षकी है। (१०२-४)
हे श्रेणिक ! इस प्रकार तीर्थकरोंकी आयुके बारेमें मैंने कहा । अब जो चक्रवर्ती जिन तीर्थकरोंके बीच होता है उसके बारे में सुनो । (१०५) ऋषभसे मंगलामें प्रथम चक्रधर भरत हुआ। अन्य भवमें बाहु नामका वह पुण्डरीकिणीमें जिनवग्रसेनका पुत्र था। मरकर वह राजा सर्वार्थसिद्धमें गया। वहाँसे च्युत होकर और भरतके रूपमें पैदा हो मोक्षमें गया। (१०६-७) पृथिवीपुरमें विजय नामके राजाने यशोधर गुरुको पाकर दीक्षा ली और विजय नामक उत्तम विमानमें गया । (१०८) च्युत होनेपर अयोध्यामें विजयसे यशोमती में वह उत्पन्न हुआ। पुत्रोंके वियोगमें सगर तप करके मोक्षमें गया। (१०९) इसके पश्चात् पुण्डरोकिणीमें शशिप्रभने विमल मुनिवरके पास जिनदीक्षा ग्रहण की और प्रैवेयकमें उत्तम देवरूपसे उत्पन्न हुआ। (११०) वहाँसे च्युत होनेपर श्रावस्तीमें सुमित्र राजाकी पत्नीसे मधवा नामक चक्रधर हुआ। (१११) श्रीधर्मनाथ एवं श्रीशान्तिनाथ जिनोंके बीचके समयमें भरतक्षेत्रका उपभोग करके तथा जिनवरके तपका आचरण करके सनत्कुमार नामक
१. विणीयाए-प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org