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२०. १२७ ]
२०. तित्थयर - चक्कत्रट्टीबलदेवाइभ वाइट्ठाणकित्तणं
सनत्कुमारच क्रिचरितम् -
तो सणकुमारो, अइरूवो तिहुयणम्मि विक्खाओ । उप्पन्नो चक्कहरो, तत्थेव जिणन्तरे धीरो ॥ तो भणइ मगहराया, केण व पुण्णाणुभावजणिएणं । नाओ सो अइरूवो, कहेहि मे कोउयं भयवं ! ॥ संखेवेण गणहरो, कहेइ सबं पुराणसंबंन्धं । अत्थेत्थ भरहवासे, गामो गोवद्धणो नामं ॥ सावयकुलसंभूओ, जिणदत्तो नाम गहवई तत्थ । सायारतवं काउं, कालगओ पत्थिओ सुंगई ॥ महिला तस्स विओए, विणयवई निणहरं अइमहन्तं । काराविय दढचित्ता, पबज्जं गिव्हिऊण मया ॥ नामेण मेहबाहू, तत्थेगो गहवई परिबसइ । भद्दो सम्मद्दिट्ठी, धीरो उच्छाहवन्तो य ॥ दट्ठूण निणाययणे, विणयमईसन्तिए महापूयं । सद्दहिऊण मओ सो, तत्तो जक्खो समुप्पन्नो ॥ कुणइ य वेयावच्चं, चाउबण्णस्स समणसङ्घस्स । निणसासणाणुरतो, विसुद्धसम्मत्तदढभावो ॥ तत्तो चुओ समाणो, महापुरे सुप्पभस्स भज्जाए । अह तिलयसुन्दरीए, धम्मरुई नरवई नाओ ॥ सुप्पहमुणिस्स सीसो जाओ वय समिइ गुत्ति संपन्नो । सङ्काइदोसरहिओ, सए वि देहे निरवयक्खो ॥ सङ्घस्स भावियमई, वेयावच्चुज्जुओ गुणमहन्तो । काऊण कालधम्मं, माहिन्दे सुरवरो जाओ ॥ अमरविमाणाउ चुओ, सहदेवनराहिवस्स महिलाए । जाओ सणकुमारो, चक्कहरो गयपुरे नयरे ॥ सोहम्माहिवईणं, रूवं चिय जस्स वण्णियं सोउं । दो संसयपडिवन्ना, देवा दट्ट्ठूण ओइण्णा ॥ दट्ठूण चक्कवहिं, देवा जंपन्ति साहु ! साहु ! ति । अइसुन्दरं तु रूवं, पसंसियं तुज्झ सक्केणं ॥ तो भणए चक्कवट्टी, जइ देवा ! आगया मए दट्टु ं । एकं खणं पडिच्छह, मज्जिय-निमियं नियच्छेह ॥
तब मगधराज श्रेणिकने पूछा कि, कहें। मुझे इसका कुतूहल हो रहा है । (११४)
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कल्पमें उत्पन्न हुआ । (११२) वहाँ से अत्यन्त रूपवान तीनों लोकों में विख्यात और धीर सनत्कुमार चक्रवर्ती उन्हीं जिनोंके अन्तराल कालमें उत्पन्न हुआ १ (११३)
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भगवन् ! किस पुण्यके फलस्वरूप वह अत्यन्त रूपवान् हुआ, यह आप इस पर गणधर गौतमस्वामीने समग्र प्राचीन वृत्तान्त संक्षेपमें कहा कि
इस भरतक्षेत्र में गोवर्धन नामका एक गाँव है । (११५) वहाँ श्रावक कुलमें उत्पन्न जिनदत्त नामका एक गृहपति था । सागर तप करके मरने पर उसने अच्छी गति प्राप्त की । (११६) उसकी भार्या विनयवतीने उसके वियोग में अतिविशाल जिनमन्दिर बनवाया । दृढ़चित्तवाली वह प्रव्रज्या अंगीकार करके मर गई । (११७) उसी गाँवमें मेघबाहु नामका एक गृहस्थ रहता था। वह भद्र, सम्यग्दृष्टि, धीर और उत्साहशील था । (११८) जिनमन्दिर में विनयवती द्वारा की गई महापूजा उसने देखी। उसे श्रद्धा हुई। मरने पर वह यक्ष रूपसे उत्पन्न हुआ । (११९) जिन शासन में अनुरक्त तथा विशुद्ध सम्यक्त्वमें दृढ़ भाववाला वह चतुर्विध श्रमणसंघकी सेवा-शुश्रूषा करता था । (१२०) वहाँसे च्युत होने पर महापुरमें सुप्रभकी भार्या तिलकसुन्दरीसे धर्मरुचि नामका राजा हुआ । (१२१) वह सुप्रभ मुनिके व्रत, समिति और गुप्त सम्पन्न, शंका आदि दोषोंसे रहित और अपनी देहमें भी अनासक्त ऐसा शिष्य हुआ । (१२२) संघमें श्रद्धासम्पन्न, सेवापरायण और गुणोंसे महान् ऐसा वह मर करके महेन्द्र देवलोक में उत्तम देव हुआ । (१२३) देव विमानसे च्युत होने पर वह सहदेव राजाकी पत्नीसे गजपुरनगर में सनत्कुमार नामका चक्रवर्ती हुआ । (१२४) सौधर्माधिपति से उसके रूपका वर्णन सुनकर संशयालु दो देव उसे देखनेके लिए नीचे उतरे। (१२५) चक्रवर्ती को देखकर देव कहने लगे कि, 'साधु साधु !, तुम्हारे अतिसुन्दर रूपकी प्रशंसा इन्द्रने की है।' (१२६) इस पर चक्रवर्तीने कहा कि हे देव ! यदि मुझे देखनेके लिए आये हैं तो एक क्षण भर मेरी प्रतीक्षा करें और स्नान एवं भोजन करने के बाद मुझे देखें । (१२७) स्नान एवं बलिकर्म करके सब अलंकारों से विभूषित १. भावजोएण — प्रत्य• । २. सुगई — प्रत्य• । ३. पश्यत ।
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