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________________ १५म पउमचरियं [२०.७० कालो अइसुसमाए, कोडाकोडीउ हवइ चत्तारि । सुसमा पुण तिष्णि भवे, सूसमदुसमा य दो चेव ॥ ७० ॥ एक्का कोडाकोडी. बायालीसं भवे सहस्सेहिं । वासेहि य ऊणो खलु, दूसमसुसमाएँ कालोउ ॥ ७१ ॥ एगावीससहस्सा, कालो चिय दूसमाएँ परिणमइ । अच्चन्तदूसमाए, तावइओ चेव नायबो ॥ ७२ ॥ तीर्थकराणामन्तराणिपन्नाससयसहस्सा, उदहीकोडीण अन्तरं पढमं । बीयं तु हवइ तोसा, तइयं दस होन्ति नायबं ॥ ७३ ॥ नवनउई य चउत्थं, नउइ सहस्साणि पञ्चमं भणियं । नव चेव सहस्सा पुण, सायरनामाण छटुं तु ॥ ७४ ॥ नव चेव सया भणिया, सत्तमयं अन्तरं सुयधरेहिं । नउई पुण अट्ठमयं, नवमं नव चेव नायव ॥ ७५ ॥ छावट्ठिसयसहस्सा, छवीससहस्स वाससंखाए । उदहिसरण य ऊणा, एगा कोडी य दसमम्मि ॥ ७६ ॥ चउपन्नसागराई, तीसा नव चेव होन्ति चत्तारि । एया अन्तराई, अणुपरिवाडीऍ भणियाई ।। ७७ ॥ तिण्णेव सागराइं, तीसु य भागेसु होन्ति पल्लस्स । ऊणाणि य पन्नरसं, जिणन्तरं होइ नायव ॥ ७८ ॥ पल्लद्धं सोलसम, सत्तरसं अन्तरं चउब्भाओ। पल्लस्स हवइ ऊणो, कोडिसहस्सेण वासाणं ॥ ७९ ।। कोडिसहस्सं वासाण, होइ अट्ठारसन्तरं एत्तो। चउपन्नसयसहस्सा, जिणन्तरं ऊणवीसइमं ॥ ८० ॥ छ च्चेव सयसहस्सा, वीसइमं अन्तरं समुद्दिटुं । पञ्चेव हवइ लक्खा, जिणन्तरं एगवीसइमं ॥ ८१ ॥ पन्नासा सत्त सया, तेयासीई सहस्स बावीसं । अड्डाइज्जा य सया, तेवीसं अन्तरं होइ ।। ८२ ॥ गयावीस सहस्सा, तित्थं वीरस्स कालसंखाए । होही परं तु नियमा, अइदुसमा तत्तिया चेव ॥ ८३ ॥ पञ्चमषष्ठारकयोःस्वरूपम् - परिनिव्वुए निणिन्दे, वीरे अइसयविवजिओ कालो । वल-चक्क हरिविमुक्को, होही नाणुत्तमविहीणो ॥ ८४ ॥ सागरोपमका होता है। सुषमाके तीन जबकि सुषमदुःपमके दो सागरोपम होते हैं। (७०) बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम काल दुःषम-सुपमाका होता है। (७२) इक्कीस हजार वर्षका समय दुःषमाका कहा गया है। अत्यन्त दुःषमाका भी उतना ही जानना चाहिये । (७२) ५० लाख कोटि सागरोपमका पहला अन्तर ( अर्थात् पहले और दूसरे तीर्थकरके निर्वाणके बीचका अन्तर) है। दूसरा अन्तर ( दूसरे और तीसरे तीर्थकरके बोच) ३० लाख कोटि सागरोपमका है। तीसरा अन्तर (तीसरे और चौथे के बीच)१० लाख कोटि सागरोपमका होता है, यह जानना चाहिए । (७३) चौथा अन्तर ९ लाख कोटि सागरोपमका है। पाँचवाँ ९० सहस्र कोटि सागरोपमका कहा गया है। छठा ९ सहस्र कोटि सागरोपमका है। (७४) सातवाँ अन्तर ९ सौ कोटि सागरोपमका श्रतधरोंने कहा है। आठवाँ ९. कोटि सागरोपमका और नवाँ ९ कोटि सागरोपमका समझना चाहिए। (७५) दसवाँ १०० सागरोपम, ६६ लाख और २६ हजार वर्ष न्यून एक कोटि सागरोपमका है। (७६) ५४ सागरोपम, ३० सागरोपम, ९ सागरोपम तथा ४ सागरोपम-ये अन्तर क्रमशः कहे गये हैं। अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें अन्तरका काल इतना है। (७७) जिनोंके बोचका पन्द्रहवाँ अन्तर : पल्योपम, न्यून ३ सागरोपमका समझो। (७८) सोलहवाँ ३ पल्योपमका और सत्रहवाँ कोटि सहस्र वर्ष न्यून पल्योपमके चौथा भागका है। (७९) अठारहवाँ अन्तर कोटि सहस्र वर्षका और जिनोंके बीचका उन्नीसवाँ अन्तर ५४ लाख वर्षका है। (८०) बीसवाँ अन्तर छः लाख वर्षका कहा गया है। जिनोंके बीचका इक्कीसवाँ अन्तर ५ लाखका होता है । (८१) बाईसवाँ ८३,७५० वर्षका और तेईसवाँ २५० वर्षका अन्तर है। (२) कालकी संख्यासे वीरप्रभुका तीर्थ २१ हजार वर्षका है। उसके पश्चात् नियमतः अतिदुःषमा काल आयेगा। (23) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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