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________________ १८७ २०.६९] २०. तित्थयर-चक्कवट्टीबलदेवाइभवाइट्ठाणकित्तणं निद्धन्तकणयवण्णा, सेसा तित्थंकरा समक्खाया । मल्ली अरिट्ठनेमी, पासो वीरो य वसुपुज्जो ॥ ५७ ॥ एए कुमारसीहा, गेहाओ निग्गया जिणवरिन्दा । सेसा वि हु रायाणो, पुहई भोत्तूण निक्खन्ता ॥ ५८ ॥ एए 'जिणिन्दचन्दा, सुर-नरमहिय-ऽच्चिया निययकालं । पत्ता महाभिसेयं, जम्मणसमए गिरिन्दम्मि ॥ ५९ ॥ संपत्ता कल्लाणं, परमपयं सासयं सिवं ठाणं । तिहुयणमङ्गलनिलया, देन्तु गेई जिणवरा सबे ॥ ६० ॥ आउपमाणं तह अन्तरं च तित्थयर-चक्कवट्टीणं । जो जस्स हवइ तित्थे, बलदेवो चक्कवट्टी वा ॥ ६१ ॥ तुज्झ पसाएण अहं, एवं इच्छामि जाणिउं भयवं! । साहसु फुड-वियडत्थं, जह वत्तं कालसमयम्मि ॥ ६२ ॥ एवं च भणियमेत्ते, मगहनरिन्देण गोयमो ताहे । जलहरगम्भीरसरो, कहेइ सर्व निरवसेसं ॥ ६३ ॥ जो वित्थरेण अत्थो, संखाएँ अवडिओ अइमहन्तो। सो बुहयणेण एत्तो, गहिओ-संखेवओ सबो ॥ ६४ ॥ • पल्योपमसागरोपमोत्सर्पिण्यादिकालस्वरूपम् - जं जोयणवित्थिणं, ओगाढं जोयणं तु वालस्स । एगदिणनायगस्स उ, भरियं वालम्गकोडीणं ॥६५॥ वाससए वाससए, एक्कक्के अवहियम्मि जो कालो। कालेण तेण एवं, हवइ य पलिओवमं एक्कं ॥ ६६ ॥ दस कोडाकोडीओ, पल्लाणं सागरं हवइ एक्कं । दसकोडाकोडीओ, उदहीणऽवसप्पिणी हवइ ।। ६७ ॥ उस्सप्पिणी वि एवं, सरिसा परियत्तदेसभावेणं । नह बहुलसुक्कपक्खे, ओसरइ पवड्डई चन्दो ।। ६८ ॥ छन्भेया उद्दिट्टा, कालविभागस्स होन्ति नायबा । भरहेरवएसु सया, कुणन्ति परियट्टणं एए ॥ ६९ ॥ से सिंह जैसे पराक्रमी थे जिनवरेन्द्र दीक्षित हुए थे। बाकीके राजा पृथ्वीका उपभोग करके निकले थे। (५७-८) देवों एवं मनुष्यों द्वारा स्तुत एवं पूजित तथा जिनेन्द्रोंमें चन्द्र के समान इन जिनेश्वरोंका जन्मके समय नियमतः मेरुपर्वतके उपर महाभिषेक हुआ था। (५६) दोक्षा, केवलज्ञान आदि कल्याणक भी इन्होंने प्राप्त किये थे तथा शाश्वत शिवस्थानरूप परमपद भी प्राप्त किया था। सब जिनवर तीनों लोकोंमें मंगलधाम जैसी मोक्षगति प्रदान करें। (६०) हे भगवन् ! आपके अनुग्रहसे तीर्थकर एवं चक्रवर्तीकी आयुका परिमाण तथा बीचका अन्तर, जिसके तीर्थ में जो बलदेव या चक्रवर्ती होता है यह सब मैं जानना चाहता हूँ। अतः उस काल और समयमें जैसा हुआ वैसा आप स्फट एवं विशद रूपसे कहें । (६१ ६२) मगधराजके ऐसा कहनेपर बादलके समान गम्भीर स्वरवाले गौतमने पूर्णरूपसे सब कुछ कहा कि जो अर्थ विस्तारमें संख्यासे भी बहुत बड़ा है अर्थात् जिसकी गणना नहीं की जा सकती इस सबको ज्ञानीजनोंने ग्रहण करके संक्षेपमें कहा है। (६३-६४) एक योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन गहरा गड्ढा हो और एक दिनके पैदा हुए बालकके बालके करोड़ों अप्रभागोंसे वह भरा जाय तथा सौ सौ सालके बाद एक एक बाल निकालनेपर जो समय उसके खाली करने में लगेगा वह एक पल्योपम होता है। (६५-६६) दस कोटाकोटि पल्योपमका एक सागरोपम होता है। दस कोटाकोटि सागरोपमकी एक अवसर्पिणी होती है। (६७) उत्सर्पिणी भी ऐसी ही होती है। कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्षमें चन्द्र जिस तरह घटता और बढ़ता है उसी तरह देश और भावके अनुसार ये उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी घटती-बढ़ती रहती है। (६८) इस कालविभागके छः भेट किये गये हैं, जो ज्ञातव्य हैं। भरत एवं ऐरवतमें ये परिवर्तन करते हैं। (६९) अविसुषमाका काल चार कोटाकोटि श्री वीरश्वरमश्चाहनीषभोग्येन कर्मणा । कृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्रवजिष्यति सेत्स्यति ॥ १०४ ॥ परन्तु भागे जाने पर पार्श्वनाथचरित ( पर्व ९, सर्ग३) में पाश्वको विवाहित सूचित करते हैं। इस सर्गके २१० वें श्लोकका चरण है-'....उद्वाह प्रभावतीम् ।' सम्भवतः स्मरण न रहनेसे अथवा दूसरी कोई परम्परा सम्मुख रहनेसे ऐसा हुआ होगा। १. जिणधरचंदा-प्रत्य । २. गई-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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