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________________ १८४ पउमचरियं [२०. २३. अवराइयं विमाणं, नायवं आरणं महाभागं । पुप्फोत्तरं च एत्तो, काविट्ठ अह सहस्सारं ॥ २३ ॥ पुप्फोत्तरं च विजयं, एत्तो अवराइयं वरविमाणं । तह चेव वेजयन्तं, अन्ते पुष्फोत्तरं होई ॥ २४ ॥ एएसु विमाणेसुं, चइया तित्थंकरा समुप्पन्ना । इह भारहम्मि बासे, सुर-असुरनमंसिया सिद्धा ॥ २५ ॥ तीर्थकराणां जन्मनगर्यः माता-पितवः नक्षत्राणि ज्ञानपादपाः निर्वाणस्थानं च -- नयरी माया य पिया, नक्खत्तं नाणपायवो चेव । निधाणगमणठाणं, कहेमि सधं जिणवराणं ॥ २६ ॥ साएयं मरुदेवी, नाही तह उत्तरा य आसाढा । वडरुक्खो अट्ठावय, पढमजिणो मङ्गलं दिसंउ१ ॥ २७ ।। अह कोसला य विजया, जियसत्तू रोहिणी जिणो अजिओ। रुक्खो य सत्तवण्यो, सेणिय ! तुह मङ्गलं दिसे उ२॥२८॥ सावत्थी सेणा वि य, विजयारी संभवो जिणवरिन्दो । इन्दतरू वरसालो, मगहाहिब ! फुसउ पावं ते३ ॥ २० ॥ सिद्धत्था पढमपुरी, रिक्खं तु पुणबसू सरलाक्खो । अह संवरो नरिन्दो, जियो य अहिणन्दणो पुणउ४ ॥ ३० ॥ मेहप्पभो पियङ्ग , सुमङ्गला पुरवरी य साएया । रिक्खं मघा य सुमई, मङ्गलम उलं तुह नरिन्द !५ ॥ ३१ ॥ उन जिनवरोंके नगरी, माता व पिता, नक्षत्र, वृक्ष एवं निर्वाणगमनस्थान ये सब कहता हूँ (२६) १. साकेत नगरी, मरुदेवी माता तथा नाभि पिता, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, वद वृक्ष तथा अष्टापद् पर्वत-प्रथम जिन ऋषभदेव तुम्हारा कल्याण करें। २. कोशलानगरी, विजया माता और जितशयु पिता, रोहिणी नक्षत्र, सप्तपर्णवृक्ष तथा अजित जिन, हे श्रेणिक ! तुम्हारा मंगल करें। ३. हे मगधाधिप! श्रावस्ती नगरी, सेना माता और विजयारि पिता, जिनवरेन्द्र सम्भवनाथ और उत्तम माला धारण करनेवाला इन्द्रवृक्ष तुम्हें पापसे बचावे । ४. सिद्धार्था नामकी उत्तम नगरी, पुनर्वसु नक्षत्र, सरल वृक्ष, संबरराजा और अभिनन्दन जिन तुम्हें पवित्र करें। ५. हे नरेन्द्र ! मेघप्रभ पिता, इन्हीं विमानोंका निर्देश है: सर्वार्थसिद्धिसंशब्दो वैजयन्तः सुखावहः । अवेयको महाभासः वैजयन्तः स एव च ॥ ३१ ॥ ऊर्ध्वग्रेवेयको यो मध्यमश्च प्रकीर्तितः। वैजयन्तो महातेजा अपराजितसंज्ञकः ॥ ३२ ॥ आरणश्च समाख्यातस्तथा पुष्पोत्तराभिधः। कापिष्टः पुर शुकश्च सहस्त्रारो मनोहरः ॥ ३३ ॥ त्रिपुष्पोत्तरसंज्ञोतो मुक्ति स्थानवरस्थितः। विजयाख्यरतथा श्रीमानपराजितसंज्ञकः ॥ ३४ ॥ प्राणतोऽनन्तरातीतो वैजयन्तो महाद्युतिः। पुष्पोत्तर इति ज्ञेयो जिनानाममरालयाः ॥ ३५ ॥ यद्यपि छपे हुए इस पद्मपुराणका पाठ कहीं कहीं अशुद्ध प्रतीत होता है, तथापि 'त्रिपुष्पोत्तर' से तीन पुष्पोत्तर लें तो भी वीसवी संज्ञा होती है, अवशिष्ट चारका निर्देश रह ही जाता है। इसका कारण सोचने पर ऐसा लगता है कि रविषेणके पहलेरो ही मूल में पे एक गाथा छट गई हो और इस कमीकी ओर किसीका ध्यान ही न गया हो। जो कुछ भी हो, इस विषयमें जैन परम्परा जानने के लिए सप्ततिशतरधानमंमें नोचेकी गाथाएँ उद्धृत की जाती हैं: सवढ तह विजयं सत्तमगोविजयं दुसु जयन्तं । नवमं छटुं गेविजयं तओ वेजयंतं च ॥ ५४ ॥ आणय-पाणय अच्चुअ पाणअ सहसार पाणयं विजयं । तिसु सव्वट्ठ-जयंतं अवराहय पाणयं चेव ॥ ५५ ॥ अवराइय पाणयगं पाणयगमिमे व पुन्वभवसग्गा । -अर्थात् ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थकर क्रमशः (१) सर्वार्थसिद्ध, (२) विजय, (३) सप्तम वेयक, (४-५) जयन्त, (६) नवम प्रवेयक, (५) षष्ठ ग्रेवेयक, (५) वैजयन्त, (९) आनत, (१०) प्राणत, (११) अच्युत, (१२) प्राणत, (१३) सहस्रार, (१४) प्राणत, (१५) विजय, (१६-१७-१८) सर्वार्थसिद्ध, (१९) जयन्त, (२.) अपराजित, (२१) प्राणत, (२२) अपराजित, (२३-२४) प्राणत-ये जिनोंके पूर्वभवके स्वर्ग हैं। १-२. देउ-प्रत्य० । ३. पुनातु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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