________________
१८. पवणंजय - अंजणासुन्दरी समागमविहाणं
३१ ॥
३५ ॥
३६ ॥
अमुणियकज्जाऍ मए, पावाए एरिसं कयं कम्मं । जीवस्स वि संदेहो, जेण य पुत्तस्स में जाओ ॥ एयं आइच्चपुरं, आरामुज्जाण - काणणसमिद्धं । मह पुतेण विरहियं, देइ सोह अरण्णं व ॥ संठाविऊण महिलं, पल्हाओ निग्गओ पुरवराओ । पुत्तस्स मभ्गणट्टे, पुरओ चिय पहसियं फाउं ॥ सबै वि खेयरिन्दा, वाइरिया उपयसेदिवत्थवा । सिग्धं चिय संपता, पल्हायनराहिवस्यासं ॥ ३२ ॥ हिण्डन्ति गवेसन्ता, पवणगई ते समन्तओ पुहई । पडिसुज्जएण दिट्ठा, दूया पल्हायनिवतणया ॥ ३३ ॥ परिपुच्छिएहि सिहं, पवणं जयकारणं अपरिसेसं । सोऊण अञ्जगा वि य, अहिययरं दुखिया जाया ॥ ३४ ॥ रोवन्ती भइ तओ, हा नाह ! कओ गओ अपुण्णाए । बहुदुक्खभाइणीए, अलद्धसुहसंगमासाए ? ॥ पडिमुज्जओ वि एत्तो, आसासेऊण अञ्जणा तुरियं । उप्पइओ गयणयले, पेच्छइ विज्जाहरे सबे ॥ अह ते गवेसमाणा, भृयारण्गं वणं समगुपत्ता । पेच्छन्ति तत्थ हत्थि, पवणं जयसन्तियं मत्तं गयवरं तं सधे विज्जाहरा सुपरितुट्टा । जंपन्ति एकमेकं पत्रणगई एत्थ निक्खुतं ॥ अञ्जणगिरिसमस रिसो, सियदन्तो चडुलचलणगइगमणो । पासेसु परिभमन्तो, रक्खइ सामी सुभिच्चो व ॥ पवणवेगं, ओइण्णा खेयरा नहयलाओ | वारेइ अल्लियन्ते, तस्स समीवं गयवरो सो ॥ काऊण वसे हत्थि, पवणसमीवम्मि वेयरा पत्ता । पेच्छन्ति अचलियङ्ग, मुणि व जोगं समारूढं ॥ आलिङ्गिऊण पुत्तं, पल्हाओ रुयइ बहुविहपलावं । हा वच्छ! महिलियाए, कएण दुक्खं इमं पत्तो ॥ परिवज्जियमाहारं, कय मोणं मरणनिच्छिउच्छाहं । नाऊण साहइ फुडं, पडिसूरो अञ्जणापगयं ॥ एत्तो कुमार ! निसुणसु, संझागिरिमत्थए मुणिवरस्स । उप्पन्नं नाणवरं, नामेण अणन्तविरियस्स ॥ तं वन्दिऊण समणं, आगच्छन्तेण तत्थ रयणीए । पलियङ्कगुहाऍ मए, रोवन्तो अञ्जणा दिट्ठा ॥
॥
३७ ॥
१८.४५ ]
Jain Education International
२९ ॥
३० ॥
For Private & Personal Use Only
३८ ॥
३९ ॥
४० ॥
४१ ॥
४२ ॥
४३ ॥
४४ ॥
४५ ॥
ज्ञान न रखनेवाली पापी मैने ऐसा कार्य किया है, जिससे मेरे पुत्रके बारेमें सन्देह हो गया है । (२९) वन-उपवनों से समृद्ध यह आदित्यपुर मेरे पुत्रके अभाव में जंगलकी भाँति सुख नहीं देता । (३०) पत्नीको ढाढ़स बँधाकर प्रह्लाद प्रहसितको आगे करके पुत्र की खोज के लिए नगरमेंसे निकला । (३१) दोनों श्रेणियों में रहनेवाले सभी खेचरेन्द्र बुलाये गये । प्रह्लाद राजाके पास वे शीघ्र ही आये । (३२) पवनंजयको खोजते हुए वे पृथ्वीपर चारों ओर घूमने लगे । प्रह्लाद राजाके सन्देशवाहक पुत्रोंको प्रतिसूर्यने देखा । (३३) पूछने पर पवनंजयका समग्र वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया । उसे सुनकर अंजना भी बहुत ही अधिक दुःखी हुई । (३४) रोती हुई वह कहने लगी कि, हा नाथ ! पापी, अतिदुःखभागी और मिलनसुख जिसे नहीं मिला है ऐसी मुझे छोड़कर तुम कहाँ गये हो ? (३५) प्रतिसूर्य भी अंजनाको आश्वासन देकर वहाँसे जल्दी ही आकाशतलमें उड़ा और उसने सब विद्याधरोंको देखा । (३६) उसे ढूँढ़ते हुए वे भूतारण्य नामक वनमें आ पहुँचे । वहाँपर उन्होंने पवनंजय के पास जो मदोन्मत्त हाथी था उसे देखा । ( ३७ ) उस हाथी को देखकर सब विद्याधर आनन्दित होकर एक-दूसरे से कहने लगे कि पवनगति यहाँपर अवश्य है । (३८) अंजनगिरिके समान श्याम वर्णवाला, सफेद दाँतवाला और पैरोंसे चपलगति करनेवाला वह हाथी अच्छे सेवकको भाँति चारों ओर घूमकर अपने स्वामीकी रक्षा कर रहा था । (३९) पवनवेगको देखकर आकाशमें से सब विद्याधर नीचे उतरे । गजवर उसके पास आनेवालोंको रोकता था । (४०) हाथीको वशमें करके खेचर पवनंजय के समीप पहुँच गये। वहाँ उन्होंने योगमें आरूढ़ मुनिकी भाँति निश्चल शरीरवाले पवनंजयको देखा । (४१) पुत्रको आलिंगन करके प्रह्लाद अनेक प्रकारका विलाप करके रोने लगा कि, हा वत्स ! स्त्रीके लिए तुमने यह दुःख प्राप्त किया है । (४२) आहारका त्याग करके मौन धारण किये हुए और मरणके लिए दृढ़ उत्साहवाले तथा अंजनासे विरहित उसे पहचानकर प्रतिसूर्यने स्पष्ट रूप से कहा कि, हे कुमार ! तुम सुनो। संध्यागिरिके शिखरपर अनन्तवीर्य नामके मुनिको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था । (४३-४) उन श्रमणको वन्दन करके वापस लौटते हुए मैंने वहाँ पल्यंकगुफा में रोती हुई अंजनाको देखा । (४५)
१. अअर्थ - प्रत्य• । २३
१७७
www.jainelibrary.org