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पउमचरियं
[१८.४६परिपुच्छिया य तीए, सिर्ल्ड निवासकारणं सर्व । आसासिया मए च्चिय, सयणसिणेहं वहन्तेणं ॥ ४६ ॥ तद्दिवसं चिय तीए, जाओ पुत्तो सुरूवलायण्णो । दिबविमाणारूढो, निजन्तो महियले पडिओ ॥ ४७ ॥
ओइण्णो च्चिय सहसा, गयणाओ अञ्जणाएँ समसहिओ। पेच्छामि बालयं तं. पडियं गिरिकन्दरुद्देसे ॥ ४८ ॥ संचुणिओ य सेलो. सहसा बालेण पडियमेत्तेणं । तेणं चिय सिरिसेलो, नाम से कयं कुमारस्स ॥ ४९ ॥ सहियाएँ समं बाला, गहियसुया आयरेण लीलाए । नीया हणुरुहनयर, तत्थ पमोओ को विउलो ॥ ५० ॥ तत्तो य हणुरुहपुरे, जेणं संवडिओ य सो बालो । हणुओ त्ति तेण नाम, बीयं चिय पायर्ड जायं ॥ ५१ ॥ एसा ते परिकहिया, समयं पुत्तेण मह पुरे बाला । अच्छइ महिन्दतणया, मा अन्नमणं तुमं कुणसु ॥ ५२ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, चलिओ पवणंजओ परमतुट्ठो । विज्जाहरेहि समयं, हणुरुहनयरं समणुपत्तो ॥ ५३ ॥ विज्जाहरेहि परमो, तत्थेव को समागमाणन्दो। बहुखाण-पाण-भोयण-नड-नट्टरमन्तअइसोहो ॥ ५४ ॥ गमिऊण दोणि मासे, तत्थ गया खेयरा नियपुराई । पवणंजओ वि अच्छइ, तम्मि पुरे अञ्जणासहिओ ॥ ५५ ॥ तत्थेव य हणुमन्तो, संपत्तो जोवणं सह कलासु । साहियविज्जो य पुणो, जाओ बल-विरियसंपन्नो ॥ ५६ ॥ पुत्रेण महिलियाए, सहिओ पवणंजओ हणुरुहम्मि । अच्छइ भोगसमिद्धि, भुञ्जन्तो सुरवरो चेव ॥ ५७ ॥
पवणगइविओगे अञ्जणासुन्दरीए, परभवजणियं जं पावियं तिबदुक्खं । हणुयभवसमूह जे सुणन्तीह तुट्ठा, विमलकयविहाणा ते हु पावन्ति सोक्खं ॥ ५८ ॥
॥ इय पउमचरिए पवणंजयजणासुन्दरीसमागमविहाणो नाम अट्ठारसमो उद्देसओ समत्तो ।।
पूछनेपर उसने निर्वासनाका सारा कारण कह सुनाया। स्वजनके स्नेहको धारण करनेवाले मैंने उसे आश्वासन दिया। (४६) उसी दिन उसे रूप एवं लावण्यसे युक्त सुन्दर पुत्र हुआ था। दिव्य बिमानमें आरूढ़ होकर ले जाया जाता वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। (४७) सखीसे युक्त अंजनाके साथ मैं एकदम आकाशमेंसे नीचे उतरा और देखता हूँ तो पर्वतकी कन्दराओंके प्रदेशमें वह पड़ा हुआ था। (४८) बालकके सहसा गिरने मात्रसे वह पर्वत चूर्ण विचूर्ण हो गया था। इसीलिए उस कुमारका नाम श्रीशैल रखा गया है। (४६) सखीके साथ बालकको धारण करनेवाली अंजना आदरके साथ सुखपूर्वक हनुरुहनगरमें लाई गई। वहाँपर बड़ा भारी उत्सव मनाया गया । (५०) चूंकि हनुरुहनगरमें वह बालक पाला-पोसा गया, अतः उसका दूसरा हनुमान नाम प्रसिद्ध हो गया। (५१)
यह मैंने तुम्हें कहानी कही। पुत्रके साथ अंजनाकुमारी मेरे नगरमें है, अतः तुम मनमें अन्यथा विचार मत करो। (५२) ऐसा कथन सुनकर अत्यन्त आनन्दित पवनंजय विद्याधरोंके साथ चल पड़ा और हनुरुहनगरमें आ पहुँचा। (५३) विद्याधरोंने वहाँ नानाविध खान-पान एवं भोजन तथा नटोंकी और नृत्यकी क्रीड़ासे अत्यन्त शोभनीय ऐसा आगमनका परम आनन्द मनाया। (५४) वहाँ दो मास व्यतीत करके खेचर अपने-अपने नगरों में गये । अंजनाके साथ पवनंजय भी उसी नगरमें रहा । (५५) वहींपर हनुमान कलाओंके साथ यौवनको प्राप्त हुआ और विद्याओंकी साधना करके बल एवं वीर्यसे सम्पन्न हुआ। (५६) पुत्र एवं पत्नीके साथ पवनंजय हनुरुहनगरमें उत्तम देवकी भाँति सुख एवं समृद्धिका उपभोग करता हुआ रहने लगा । (५७)
पवनगतिके वियोगमें अंजनासुन्दरीने परभवजनित जो तीव्र दुःख प्राप्त किया उसे तथा हनुमानके पूर्वभवोंके । समूहको जो यहाँ तुष्ट होकर सुनते हैं वे अपने भाग्यको विमल करके सुख प्राप्त करते हैं । (५८)
। पद्मचरितमें पवनंजय एवं अंजनासुन्दरीके समागमका विधान नामका अठारहवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
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