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पउमचरियं
[१८.१५तं मोत्तण पहसिओ, आइच्चपुरं खणेण संपत्तो । पवणंजयसंबन्धं, गुरूण सर्व निवेएइ ॥ १५ ॥ पवनञ्जयस्य विलपनम् - पवणंजओ वि एत्तो. आरुहिउं गयवरं गयणमामी । परिहिण्डिऊण वसुह, कुणइ पलावं तओ विमणो ॥ १६ ॥ सोगायवसंतत्ता, मिणालदलकमलकोमलसरीरा । हरिणि ब जूहभट्ठा, कत्तो व गया महं कन्ता? ॥ १७ ॥ गुरुभारखेड्यङ्गी, चलणेहिं दब्भसूइभिन्नेहिं । गमणं अणुच्छहन्ती, किं खझ्या दुट्टसत्तेणं? ॥ १८ ॥ किं वा असण-तिसाए, बाहिज्जन्ती मुया अरण्णम्मि ? । किं खेयरेण केणइ, अवहरिया सा महं कन्ता ? ॥ १९ ॥ एवं बहुप्पयार, पवणगई विलविऊण दीणमुहो । भूयरवं नाम वणं, संपत्तो सो गवेसन्तो ॥ २० ॥ तत्थ वि य अपेच्छन्तो, महिलं पवणंजओ विगयहासो । तो सुमरिउं पइन्नं, सत्थेसु समं मुयइ हत्थी ॥ २१ ॥ नं परिहवो महन्तो, तुज्झ कओ वाहणाइसत्तेणं । तं खमसु मज्झ गयवर ! विहरसु रण्णे जहिच्छाए ।। २२ ॥ एवं चिय वोलीणा, रयणी पवणंजयस्स तम्मि वणे । जं पिउणा तस्स कयं, तं मगहवई सुणसु एत्तो ॥ २३ ॥ पवणंजयवुत्तन्ते, मित्तेण निवेइए गुरूण तओ । सबो सयण-परियणो, जाओ अइदुक्खिओ विमणो ॥ २४ ॥ सुयसोगगग्गरगिरा, केउ (कित्ति) मई भणइ पहसियं एत्तो । पुत्तं मोत्तूण मम, एगागी कि तुम आओ? ॥ २५ ॥ सो भणइ देवि! तेणं, अयं संपेसिओ इहं तुरिओ। विरहभयदुक्खिएणं, काऊण इमं पइन्नं तु ॥ २६ ॥ जइ तं एत्थ वरतणू , न य हं पेच्छामि सोमससिवयणं । ता मज्झ एत्थ मरणं, होही भणियं तुह सुएणं ॥ २७॥
सुणिऊण वयणमेयं, केउ (कित्ति) मई मुच्छिया समासस्था । जुबईहि संपरिवुडा, कुणइ पलावं तओ कलुणं ॥ २८ ॥ मेरा मरण समझो यह मेरी प्रतिज्ञा है। (१४) उसे छोड़कर प्रहसित क्षणभरमें आदित्यपुर आ पहुँचा और पवनंजयका सारा वृत्तान्त कह सुनाया । (१५)
इधर विमनस्क पवनंजय भी गगनगामी उत्तम हाथीके ऊपर आरोहण करके पृथ्वी पर भ्रमण करता हुआ प्रलाप करने लगा कि शोकरूपी आतपसे सन्तप्त और मृणाल एवं कमलदलके समान कोमल शरीरवाली मेरी पत्नी यूथभ्रष्ट हरिणीकी भाँति कहाँ गई है ? (१६-१७) गर्भके भारसे खिन्न अंगवाली और दर्भकी सूई जैसी नोकोंसे पैर क्षत-विक्षत हो जानेसे गमनके लिए अनुत्साहित उसे किसी दुष्ट प्राणीने खा तो नहीं लिया होगा ? (१८) अथवा भूख और प्याससे पीड़ित होकर जंगल में वह मर तो नहीं गई होगी ? किसी खेचरने तो क्या मेरी उस पत्नीका अपहरण नहीं किया होगा? (१९) इस तरह अनेक प्रकारसे प्रलाप करके दीन मुखवाले पवनगतिने खोजते खोजते भूतरव नामके वनमें प्रवेश किया। (२०) जिसकी हँसी नष्ट हो गई है ऐसे पवनंजयने वहाँ पर भी पत्नीको न देखकर और अपनी प्रतिज्ञाको याद करके शस्त्रोंके साथ हाथीको छोड़ दिया । (२१) हे गजवर! वाहनमें अत्यन्त आसक्त मैंने तुम्हारा जो बड़ा भारी तिरस्कार किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा करो और इच्छानुसार वनमें विचरण करो । (२२) इस प्रकार उस वनमें पवनंजयकी रात व्यतीत हुई।
हे मगधपति ! इधर उसके पिताने जो किया वह तुम अब सुनो । (२३) जब मित्रने पवनंजयका वृत्तान्त गुरुजनोंसे निवेदित किया, तब सभी स्वजन परिजन अत्यन्त दुःखित हो शून्यचित्तसे हो गये। (२४) दुःख एवं शोकके कारण गद्गद् वाणीमें कीर्तिमतीने प्रहसितसे कहा कि मेरे पुत्रको अकेला छोड़कर तू यहाँ क्यों आया ?(२५) उसने कहा कि, हे देवी! विरहके भयसे दु:खित उसीने ऐसी प्रतिज्ञा करके यहाँपर मुझे जल्दी भेजा है। (२६) आपके पुत्र ने कहा है कि उत्तम शरीरवाली तथा चन्द्रमाके समान सौम्य वदनवाली उसे मैं यहाँ नहीं देखूगा तो मेरा यहाँ मरण होगा । (२७) यह वचन सुनकर कीर्तिमती मूञ्छित हो गई । होशमें आनेपर त्रियोंसे घिरी हुई वह करुण प्रलाप करने लगी। (२८) कार्याकार्यका
१. मया-प्रत्य.। २. भूयवरं-प्रत्य.। ३. हस्थि-प्रत्य०। ४. वरतगुं-प्रत्य० ।
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