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१७. अंजणानिव्वासण-हणुयउप्पत्तिअहियारो भणइ य वसन्तमाला, सामिणि छड्डहि परिभवं सर्व । न य होइ अलियवयणं, जं पुर्व मुणिवराइ8 ॥ ९४ ॥ अञ्जनायाः मातुलमोलनमएयं ताण पलावं, सुणिऊण नहङ्गणाउ ओइण्णो । सयलपरिवारसहिओ, ताव य विज्जाहरो सहसा ॥ ९५ ॥ पेच्छइ गुहापविट्ठो, जुवईओ दोण्णि रूवकलियाओ । पुच्छइ किवालयमणो, कत्तो सि इहाऽऽगया तुब्भे? ॥ ९६ ॥ भणइ य वसन्तमाला, सुपुरिस! एसा महिन्दनिवधूया । नामेण अञ्जणा वि हु, महिला पवणंजयभडस्स ।। ९७ ।। सो अन्नया कयाई, काऊण इमाएँ गब्भसंभूई । चलिओ सामिसयासं, न य केणइ तत्थ परिणाओ ॥ ९८ ॥ दिट्ठा य सासुयाए, गुरुभारा एस मूढहिययाए । काऊण दुट्टसीला, पिउभवणं पेसिया सिग्धं ॥ ९९ ॥ तेण वि य महिन्देणं, निच्छूढा तिबदोसभीएणं । समयं मए पविट्ठा, एसा रणं महाघोरं ॥ १०० ॥ एसा दोसविमुक्का, रयणीए अज्ज पच्छिमे जामे । वरदारयं पसूया, पलियङ्कगुहाएँ मज्झम्मि ॥ १०१ ॥ एयं चिय परिकहिए, जंपइ विजाहरो सुणसु भद्दे ! । नामेण चित्तभाणू, मज्झ पिया कुरुवरद्दीवे ॥ १०२ ॥ पडिसुजउ ति अहयं, सुन्दरमालाएँ कुच्छिसंभूओ । वरहिययसुन्दरीए, भाया य महिन्दभज्जाए ॥ १०३ ॥ मह एस भइणिधूया, बाला चिरकालदिट्ठपम्हुट्टा । साभिन्नाणेहि पुणो, मुणिया सयणाणुरापणं ॥ १०४ ॥ नाऊण माउलं सा, रुवइ वणे तत्थ अञ्जणा कलुणं । घणदुक्खवेढियङ्गी, वसन्तमालाएँ समसहिया ॥ १०५ ॥ वारेऊण रुयन्ती, भणिओ पडिसुज्जएण गणियण्णू । नक्खत्त-करण-जोगं, कहेहि एयस्स बालस्स ॥ १०६ ॥ सो भणइ अज दियहो, विभावसू बहुलअट्ठमी य चेत्तस्स । समणो च्चिय नक्खत्तं, बम्भा उण भण्णए जोगो ॥ १०७ ।। मेसम्मि रवी तुङ्गो. वट्टर मयरे ससी य समठाणे । आरो वसभे गमणो, कुलिरम्मि य भग्गवो तुङ्गो ॥ १०८ ॥ गुरुसणि मोणे तुङ्गा, बुहो य कण्णंमि वट्टए उच्चो । साहिन्ति रायरिद्धिं, इमस्स बालस्स. जोगत्तं ॥ १०९ ॥
तथा सुभट पान भी वहाँ यह ताके घर पर भेज प्रवेश किया है.
करो। मुनिवरने पहले जो कुछ कहा है वह असत्य कथन नहीं होगा। (९४) उनके ऐसी बातचीतको जानकर सम्पूर्ण परिवारके साथ एक विद्याधर सहसा वहाँ आकाशमेंसे नीचे उतरा। (९५) गुफामें प्रवेश करके उसने दो रूपवती युवतियोंको देखा। दयालु मनवाले उसने पूछा कि यहाँ पर तुम कहाँसे आई हो? (९६) इस पर वसन्तमालाने कहा कि, हे सुपुरुष ! यह महेन्द्रको अंजना नामकी पुत्री तथा सुभट पवनंजयकी पत्नी है। (९७) वह पवनंजय कभी एक बार इसमें गर्भकी उत्पत्ति करके स्वामी रावणके पास चला गया। किसीने भी वहाँ यह बात न जानी । (९८) मूढ़ हृदयवाली सासने देखा कि यह गर्भवती है। कुशीलका दोषारोपण करके उसे शीघ्रही पिताके घर पर भेज दिया । (९९) बड़े भारी दोषसे भयभीत उस महेन्द्रने भी इसे निकाल दिया। इस कारण मेरे साथ इसने अतिभयंकर अरण्यमें प्रवेश किया है । (१००) दोषसे रहित इसने आज रातके पिछले प्रहरमें इस पर्यकगुफामें उत्तम पुत्रको जन्म दिया है । (१०१) इस प्रकार कहने पर विद्याधरने कहा कि, हे भद्रे ! सुनो। कुरुवर द्वीपमें मेरे चित्रभानु नामके पिता हैं। सुन्दर माताकी गोदसे उत्पन्न मैं प्रतिसूर्यक, महेन्द्रकी भार्या वरहृदयसुन्दरीका भाई हूँ। (१०२-१०३) यह कन्या मेरी बहनकी लड़की है। चिरकालके बाद देखनेके कारण यह विमृत-सी हो गई थी, परन्तु स्वजनके अनुरागके कारण मैंने इसे पहचान लिया है। (१०४) अपने मामाको पहचानकर वह अंजना उस अरण्यमें करुण स्वरसे रोने लगी। अत्यन्त दुःखसे परिव्याप्त शरीरवाली वह वसन्तमाला द्वारा आश्वस्त की गई । (१०५) रोती हुई उसे शान्त करके प्रतिसूर्यकने ज्योतिषीसे पूछा कि इस बालकका नक्षत्र, करण एवं योग कहो । (१०६) उसने कहा कि आज रविवारका दिन तथा चैत्रमासकी कृष्णाष्टमी है। श्रवण नक्षत्र और ब्राह्म नामका योग कहा गया है। (१०७) मेषमें रवि उच्च स्थान पर है, मकरमें चन्द्रमा समस्थान पर है। मंगलका गमन वृषमें है और मेषमें शुक्र उच्च स्थान पर है। (१०८) गुरु और शनि मीनमें उन्नत स्थानपर हैं, बुध कन्या राशिमें उच्च है। ये सब इस बालककी राज-ऋद्धि तथा योगित्वके सूचक हैं। (१०६) हे सुपुरुष ! उस समय शुभ मुहूर्त था और मीनका उदय था।
इस बालकका
न पर है, मतपत्रमासकी कृष्णा
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