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पउमचरियं
[१७. ७९दटुं वसन्तमाला, तिहत्थमेत्तट्टियं गयवरारिं । पासेसु अञ्जणाए, कुरलि छ नहङ्गणे भमइ ॥ ७९ ॥ हाहा! हया सि मुद्धे!, पुर्व दोहग्गविरहदुक्खेणं । बन्धवजणेण चत्ता, पुणरवि सीहेण पडिरुद्धा ॥ ८० ॥ एसा महिन्दतणया, पवणंजयगेहिणी गुहामज्झे । सीहेण खज्जमाणी, रक्खसु वणदेवए ! तुरियं ॥ ८१ ॥ दट्टण गुहावासी, मणिचूलो नाम तत्थ गन्धबो । काऊण सरहरूवं, धाडेइ गुहाउ पञ्चमुहं ॥ ८२ ॥ सीहभयम्मि ववगए, संपडिए जीवियवए बाला । सयणिज्जम्मि निसण्णा, वसन्तमालाएँ रइयम्मि ॥ ८३ ॥ ताव च्चिय गन्धबो, भणिओ देवीएँ चित्तमालाए । सामिय! गायसु गीयं, एयाणं सज्झसावहरं ॥ ८४ ॥ तो गाइउं पवत्तो, गन्धवो मणहरं सह पियाए । वरवीणागहियकरो, जिणवरथुइमङ्गलसणाहं ॥ ८५॥
ऊण गीयसदं, महिन्दतणया वसन्तमाला य । ववगयभयाउ दोण्णि वि, अच्छन्ति तहिं गुहावासे ॥ ८६ ॥ जाए पभायसमए. नाणाविहजलय-थलयकुसुमेहिं । मुणिसुवयस्स चलणे, अच्चेन्ति विसुद्धभावाओ ॥ ८७ ॥ अच्छन्ति तत्थ दोण्णि वि, जिणपूया-वन्द्णुज्जयमईओ । गन्धबो चिय ताओ रक्खइ निययं पयत्तेणं ॥ ८८ ॥ अञ्जनायाः पुत्रप्रसूतिः - अह अञ्जणा कयाई, वसन्तमालाए विरइऍ सयणे । वरदारयं पसूया, पुबदिसा चेव दिवसयरं ॥ ८९ ॥ तस्स पभावेण गुहा, वरतरुवरकुसुम-पल्लवसणाहा । जाया कोइलमुहला, महुयरझंकारगीयरवा ॥ ९० ॥ घेत्तण बालय सा, उच्छङ्गे अञ्जणा रुयइ मुद्धा । किं वच्छ ! करेमि तुहं, एत्थारणे अपुण्णा हं? ॥ ९१ ॥ एस पिया ते पुत्तय ! अहवा मायामहस्स य घरम्मि । जइ तुज्झ जम्मसमओ, होन्तो वि तओ महाणन्दो ॥ ९२ ।। तुज्झ पसाएण अहं, पुत्तय ! जीवामि नत्थि संदेहो । पइसयणविप्पमुक्का, जूहपणट्ठा मई चेव ॥ ९३ ॥
अंजनाके पास तोन हाथ जितनी दूरी पर स्थित सिंहको देखकर वसन्तमाला कुरली पक्षिणीकी भाँति आकाशमें घूमने लगी। (७९) हे मुग्धे! पहले दुर्भाग्यवश विरह-दुःखसे तू मारी गई और बन्धुजनोंने तेरा परित्याग किया। अब पुनः त सिंहके द्वारा घेरी गई है। (५०) हे वनदेवते ! यह महेन्द्रकी पुत्री और पवनंजयकी गृहिणी गुफामें सिंह द्वारा खाई जा रही है, इसकी तुम जल्दी रक्षा करो। (८२) उस गुफामें रहनेवाले मणिचूड़ नामके गन्धवेने यह देखकर शरभका रूप धारण किया और गुफामेंसे सिंहको भगा दिया । (२) सिंहका भय दूर होने पर और जानमें जान आने पर वह बाला अंजना वसन्तमाला द्वारा रचित शय्या पर बैठी । (८३) उस समय देवी चित्रमालाने गन्धर्वसे कहा कि स्वामी इनके भयको दूर करनेवाला एक गीत आप गावें । (८४) तब वह गन्धर्व उत्तम वीणा हाथमें धारण करके अपनी प्रिंयाके साथ जिनवरकी स्तुति एवं मंगलसे युक्त मनोहर गीत गाने लगा । (५) गीतकी ध्वनि सुनकर जिनका भय दूर हो गया है ऐसी महेन्द्रतनया अंजना और वसन्तमाला दोनों ही उस गुफागृहमें ठहरी । (८६) प्रभातवेला होने पर जलमें एवं स्थलमें उत्पन्न होनेवाले नानाविध पुष्पोंसे उन्होंने मुनिसुव्रतस्वामीके चरणोंमें विशुद्ध भावसे पूजा की। (८७) वहाँ पर जिनपजा एवं चन्दनमें उद्यमशील बुद्धिवाली वे दोनों रहने लगीं और गन्धर्व भी सतत प्रयत्नसे उनकी रक्षा करने लगा। (८)
इसके पश्चात् कभी वसन्तमाला द्वारा विरचित शयनके ऊपर अंजनाने पूर्वदिशामें उगनेवाले सूर्यकी भाँति एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया । (८९) उसके प्रभावसे वह गुफा उत्तम वृक्षोंके सुन्दर फूल और पत्तोंसे युक्त, कोयलसे मुखरित तथा भौरोंके झंकारकी गीतध्वनिसे व्याप्त हो गई । (१०) बालकको गोदमें धारण करके वह मुग्धा अंजना रोती थी कि, हे वत्स! अपुण्यशाली मैं इस अरण्यमें तेरे लिए क्या करूँ ? (६१) हे पुत्र ! पिताके अथवा मातामहके घरमें तेरा यह जन्मोत्सव होता तो आनन्द-आनन्द छा जाता (९२) हे पुत्र ! तेरे प्रसादसे ही यूथसे परिभ्रष्ट हिरनीकी भाँति पति एवं स्वजनसे मुक्त मैं जी रही हूँ। (९३) इस पर वसन्तमालाने कहा कि, हे स्वामिनी! ऐसो सारी ग्लानिका परित्याग
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