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१७. अंजणानिव्वासणहणुयउप्पत्तिअहियारो। नामेण संनमसिरी, तइया अजा कएण भिक्खाए । नयरम्मि परिभमन्ती, पेच्छइ घरबाहिरे पडिमा ॥ ६३ ।। मुणियपरमत्थसारा, अज्जा कणओयरिं भणइ एत्तो। भद्दे ! सुणाहि वयणं, जे तुज्झ हियं च पत्थं च ।। ६४ ।। नरय-तिरिएसु जीवो, हिण्डन्तो निययपावपडिबद्धो। दुक्खेहि माणुसत्तं, पावइ कम्मावसेसेणं ॥ ६५ ॥ तं चेव तुमे लद्ध, माणुसजम्मं कुलं चिय विसिटुं । होऊण एरिसगुणा, मा कुणसु दुगुञ्छियं कम्मं ॥ ६६ ॥ जो जिण-गुरुपडिकुट्ठो, पुरिसो महिला व होइ जियलोए । सो हिण्डइ संसारे, दुक्खसहस्साइ पावेन्तो ॥ ६७ ॥ सोऊण अज्जियाए, वयणं कणओयरी सुपडिबुद्धा । ठावेइ चेइयहरे, जिणवरपडिमा पयत्तेणं ॥ ६८ ॥ जाया गिहिधम्मरया, कालं काऊण संजमगुणेणं । देवी होऊण चुया, उप्पन्ना अञ्जणा एसा ॥ ६९ ॥ नं बाहिरम्मि पडिमा, ठविया एयाएँ राग-दोसेणं । तं एस महादुक्खं, अणुहूयं रायधूयाए ॥ ७० ॥ गेण्हसु जिणवरधम्म, बाले! संसारदुक्खनासयरं । मा पुणरवि घोरयरे, भमिहिसि भवसायरे घोरे ॥ ७१ ।। जो तुज्झ एस गब्भो, होही पुत्तो गुणाहिओ लोए । सो विजाहरइड्वि, सम्मत्तगुणं च पाविहिइ ।। ७२ ॥ थोवदिवसेसु बाले!, दइएण समं समागमो तुझं। होही निस्संदेह, भयमुबेयं विवज्जेहि ॥ ७३ ॥ भावेण वन्दिओ सो, समणो दाऊण ताण आसीसं । उप्पइय नहयलेणं, निययट्ठाणं गओ धीरो ॥ ७४ ॥ पलियकगुहावासे, तोए उवगरण-भोयणाईयं । सबं वसन्तमाला, करेइ विजानिओगेणं ॥ ७५ ॥ एवं कमेण सूरो, अत्थाओ सयलकिरणपरिवारो। उत्थरिऊण पवत्तो, बहलतमो कज्जलसवण्णो ।। ७६ ॥ ताव च्चिय संपत्तो, सीहो दढदाढकेसरारुणिओ। पज्जलियनयणजुयलो, ललन्तजीहो कयन्तो ब ।। ७७ ॥ तं पेच्छिऊण सीह, दोण्णि वि भयविहलपुण्णवयणाओ। अच्चन्तमसरणाओ, दस वि दिसाओ पलोयन्ति ॥ ७८ ॥
घरके बाहरके भागमें रख दिया। (६२) नगरमें भिक्षार्थ परिभ्रमण करती हुई संयमश्री नामकी आर्याने घरके बाहर प्रतिमा देखी । (६३) परमार्थका सार जिसने जान लिया है ऐसी उस आर्याने तब कनकोदरीसे कहा कि, हे भद्रे! जो तुम्हारे लिए हितकर एवं पथ्य है ऐसा वचन सुनो । (६४) अपने पापसे जकड़ा हुआ जीव नरक एवं तिथंच गतिमें भटकता-भटकता कर्मका माश होनेपर बड़ो कठिनाईसे मनुष्य जन्म प्राप्त करता है। (६५) इस तरह तुमने मनुष्यजन्म तथा विशिष्ट कुल प्राप्त किया है। ऐसे गुणोंसे युक्त होकर तुम निन्दित कार्य मत करो। (६६) जिनेश्वरदेव तथा गुरु द्वारा निषिद्ध वस्तुका आचरण करनेवाली जो स्त्री या पुरुष होता है वह हजारों दुःख झेलता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता है। (६७) आर्यिकाका ऐसा वचन सुनकर अच्छी तरहसे प्रतिबोधित कनकोदरीने आदरके साथ जिनप्रतिमाकी चैत्यगृहमें स्थापना की। (६८) वह गृहस्थ धर्ममें रत हुई। मरकर संयमगुणके कारण देवी हुई और वहाँसे च्युत होकर वह इस अंजना रूपसे पैदा हुई है। (६९) इसने राग-द्वेषके वशीभूत होकर जो बाहर प्रतिमा स्थापित की थी उसीसे इस राजपुत्रीने महादुःखका अनुभव किया है । (७०) हे बाले ! संसारके दुःखका नाश करनेवाला जिनधर्म तू अंगीकार कर, अन्यथा घोर एवं घोरतर भवसागरमें पुनः भ्रमण करना पड़ेगा । (७१) तेरे गर्भ में जो यह पुत्र है वह लोकमें अत्यंत प्रशंसित होगा। वह विद्याधरोंकी ऋद्धि. तथा सम्यक्त्वगुण प्राप्त करेगा। (७२) हे बाले! थोड़े ही दिनों में पतिके साथ निस्सन्देह तेरा समागम होगा अतः भय एवं उद्वेगका परित्याग कर । (७३) भावपूर्वक वन्दित वह धीर श्रमण उन्हें आशीर्वाद देकर ऊपर उड़ा और आकाशमार्गसे अपने स्थान पर गया । (७४) पयक गुफाके उस आवास में वसन्तमालाने विद्याके बलसे पलंग आदि उपकरण तथा भोजनादि सब कुछ जुटाया। (७५) उस समय समन किरणोंसे व्याप्त सूर्य क्रमशः गति करता हुआ अस्त हुआ और काजलके समान वर्णवाला गाढ़ अन्धकार छा गया। (७६) ऐसे समय मजबूत डाढ़ों और केसरके कारण अरुण आभावाला, प्रज्वलित दोनों आँखोंवाला तथा जीभ लपलपाता हुआ यमके जैसा सिंह वहाँ आया। (७७) उस सिंहको देखकर भयजन्य विह्वलतासे व्याप्त वदनवाली वे दोनों अत्यन्त अशरण होकर दसों दिशाओं में देखने लगीं। (७८)
१. राजदुहिश्या। २. कंपंतसरीराओ-प्रत्य।
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