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पउमचरियं
[१७.४८अञ्जनागर्भपूर्वभवचरितम् - इह जम्बुद्दीववरे, पियनन्दी नाम मन्दिरपुरम्म । तस्स नया वरमहिला, पुत्तो से होइ दमयन्तो । ४८ ॥ अह अन्नया कयाई, दमयन्तो पत्थिओ क्रुज्जाणं । पुरजणकयपरिवारो, कीलइ रइसागरोगाढो ॥ ४९॥ रमिऊण तओ सुइरं, पेच्छइ साहुं तर्हि गुणसमिद्धं । गन्तूण ताण पासे, धम्म सोऊण पडिबुद्धो ॥ ५० ॥ दाऊण भावसुद्ध, सत्तगुणं फासुयं मुणिवराणं । संजम-तव-नियमरओ, कालगओ सुरवरो जाओ ॥ ५१ ॥ दिवा-ऽमलदेहधरो, सुरसोक्खं भुञ्जिऊण चिरकालं । चविओ य इहाऽऽयाओ, जम्बुद्दीवे वरपुरम्म ॥ ५२ ।। हरिवाहणस्स पुत्तो, जाओ गब्मे पियङ्गुलच्छोए । नामेण सीहचन्दो, सबकलापारओ सुहओ ॥ ५३ ॥ जिणधम्मभावियमणो. कालं काऊण वरविमाणम्मि । सिरि-कित्ति-लच्छिनिलओ, देवो जाओ महीडीओ ॥ ५४ ।। तत्तो वि देवसोक्खं, भोत्तूण चुओ इहेव वेयड्ढे । कणओयरीएँ गब्भे, सुकण्ठपुत्तो समुप्पन्नो ॥ ५५ ॥
अह सीहवाहणो सो, अरुणपुरं भुञ्जिऊण चिरकालं । लच्छीहरस्स पासे, निक्खन्तो विमलजिणतित्थे ॥ ५६ ॥ • काऊण तवमुयारं, आराहिय संजमं तवबलेणं । जाओ लन्तयकप्पे, देवो दिवेण रूवेणं ॥ ५७ ॥ तं अमरपवरसोक्खं, भोत्तण चुओ महिन्दतणयाए । गब्भम्मि समावन्नो, इह जीवो पुवकम्मेहिं ॥ ५८ ।। एसो ते परिकहिओ, इमस्स गब्भस्स संभवो भद्दे ! । तुह सामिणीऍ हेउं, सुणेहि घणविरहदुक्खस्स ॥ ५९ ॥ अञ्जनापूर्वभवचरितम् - एसा आसि परभवे, बाला कणओयरी महादेवी । लच्छि त्ति नाम तइया, तीऍ सवत्ती तहिं बीया ।। ६० ।। सम्मत्तभावियमई, सा लच्छी ठाविऊण जिणपडिमा । अच्चेइ पययमणसा, थुणइ य थुइमङ्गलसएहिं ।। ६१ ॥ तो निययसवत्तीए, गाढं कणओयरी' रुटाए । घेत्तण सिद्धपडिमा, ठविया घरबाहिरुद्देसे ॥ ६२ ॥
इस उत्तम जम्बूद्वीपमें आई हुई मन्दिरपुर नामकी नगरीमें प्रियनन्दी नामका एक आदमी रहता था। उसकी जया नामकी उत्तम स्त्री थो। उसका दमयंत नामका एक पुत्र था। (४८) एक दिन दमयन्त एक सुन्दर उद्यानकी ओर गया। नगरजनोंसे घिरा हुआ वह रतिरूपी सागरमें अवगाहन करके क्रीड़ा करने लगा । (४९) बहुत देरतक क्रीड़ा करनेके पश्चात् वहाँ उसने गुणसे समृद्ध ऐसे एक साधुको देखा। उसके पास जाकर और धर्म सुनकर वह प्रतिबोधित हुआ। (५०) मुनिवरोंको भावशुद्धिपूर्वक सात्त्विक गुणोंसे युक्त प्रासुक दान देकर तथा संयम, तप एवं नियममें रत वह मरनेपर उत्तम देव हुआ । (५१) दिव्य एवं निर्मल देहधारी वह देवसुलभ सुखका चिरकालतक उपभोग करनेके पश्चात् च्युत होकर इस जम्बूद्वीपके उत्तम नगरमें पैदा हुआ । (५२) प्रियंगुलक्ष्मीके गर्भसे हरिवाहनको सिंहचन्द्र नामका सब कलाओंमें पारंगत तथा सुन्दर पुत्र हुआ । (५३) जिनधर्ममें भक्तियुक्त मनवाला वह मरकर उत्तम देवविमानमें श्री, कीर्ति एवं लक्ष्मीका धामरूप एक महर्द्धिक देव हुआ। (५४) देवसुखका उपभोग करके वहाँसे च्युत होनेपर इसी वैताध्यमें कनकोदरीके गर्भसे सुकण्ठके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ। (५५) उस सिंहवाहनने चिरकाल पर्यन्त अरुणपुरका उपभोग करके विमलजिनके तीर्थमें लक्ष्मीधरके पास दीक्षा अंगीकार की। (५६) उग्र तप करके और तपके सामर्थ्यसे संयमकी आराधना करके वह लान्तक नामक देवलोकमें दिव्य रूपधारी देव हुआ। (५७)। देवके उस अत्युत्तम सुखका उपभोग करके च्युत होनेपर पूर्व कर्मों के कारण वह जीव यहाँपर महेन्द्र-तनयाके गर्भमें आया है। (५८) हे भद्रे ! इस गर्भको उत्पत्तिके बारेमें मैंने तुझे यह वृत्तान्त कहा। तेरी मालकिनके विरहजन्य घने दुःखका कारण अब तू सुन । (५९)
परभवमें यह स्त्री पटरानी कनकोदरी थी। उस समय वहाँ उसकी लक्ष्मी नामकी एक दूसरी सपनी थी। (६०) सम्यक्त्वसे भावित बुद्धिवाली वह लक्ष्मी जिनप्रतिमाकी स्थापना करके एकाग्र मनसे पूजा करती थी तथा सैकड़ों स्तुतियों एवं मंगलगीतोंसे स्तुति-प्रार्थना करती थी। (६१) इसपर उसकी सपत्नी कनकोदरीने अत्यन्त रुष्ट हो जिनप्रतिमाको उठाकर
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