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१७ अंजणानिव्वासण- हणुय उत्पत्तिअहियारो
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तावच्चिय हियइट्ठा, माऊण पिऊण बन्धवाणं च । नाव न घाडेइ पई, महिलां निययस्स गेहस्स ॥ ताव सिरी सोहम्गं, ताव य गरुयाउ होन्ति महिलाओ । नाव य पई महग्घं, सिणेहषक्खं समुबहइ ॥ माया पिया य भाया, वच्छलं तारिसं करेऊणं । अवराहविरहियाए, कह मज्झ पणासियं सबं ? || न य मज्झ सासुयाए, न चेव पियरेण मूढभावेणं । अयसस्स मूलदलियं, दोसस्स परिक्खणं न कयं ॥ एवं बहुप्पयारं, "रोवन्ती अञ्जणा निवारेउं । भणइ य वसन्तमाला, सामिणि! वयणं निसामेहि ॥ अवलोइऊण बाले !, पेच्छ गुहा सुन्दरा समासने । एयं वच्चामु लहुं, एत्थं पुण सावया घोरा ॥ गब्भस्स मा विवत्ती, होही भणिउं वसन्तमालाए । हत्थावलम्बियकरा, नीया य गुहामुहं तुरिया ॥ दिट्ठो य तत्थ समणो, सिलायले समयले सुहनिविट्टो । चारणलाइसओ, जोगारूढो विगयमोहो ॥ कर यलकयञ्जलीओ, मुणिवसह वन्दिऊण भावेणं । तत्थेव निविट्टाओ, दोण्णि वि भयवज्जियङ्गीओ ॥ तावय झाणुवओगे, संपुण्णे साहवो वि जुवईओ । दाऊण धम्मलाहं, पुच्छइ देसे कहिं तुम्हे ! ॥ तो पणमिऊण साहू, वसन्तमाला कहेइ संबन्धं । एसा महिन्द्रधूया, नामेणं अञ्जणा चेव ॥ पवणंजयस्स महिला, लोए गब्भाववायकयदोसा । बन्धवजणेण चत्ता, एत्थ पविट्टा अरण्णम्मि ॥ केण व कज्जेण इमा, वेसा कन्तस्स सासुयाए य । अणुहवर महादुक्खं, कस्स व कम्मस्स उदए ? ॥ को वा य मन्दपुण्णो, जीवो एयाऍ गब्भसंभूओ ? । जस्स कएण महायस ! जीवस्स वि संसयं पत्ता ॥ तत्तो सो अमियगई, कहेइ सबं तिनाणसंपन्नो । कम्मं परभवजणियं, फुड-वियडत्थं जहावत्तं ॥
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वह स्थान पाती है । (३३) जबतक पति अत्यन्त मूल्यवान् ऐसे स्नेहके पक्षको धारण करता है तभी तक श्री एवं सौभाग्य तथा गौरव होता है । (३४) माता, पिता और भाईने कैसा वात्सल्य किया ? निरपराध मेरा सब कुछ कैसे नष्ट हो गया ? (३५) न तो मेरी सासने और अज्ञानके वशीभूत होनेसे न पिताने बदनामीका मूल नष्ट किया और न दोषकी परीक्षा ही की । (३६)
इस प्रकार अनेक तरहसे रुदन करती हुई अंजनाको रोककर वसंतमालाने कहा कि, हे स्वामिनी ! मेरा कहना सुनो । (३७) हे बाले ! पासमें आई हुई इस सुन्दर गुफाको बराबर अवलोकन करके देखो । वहाँ हम जल्दी जावें, क्योंकि यहाँ पर भयंकर जानवर रहते हैं । (३८) गर्भ विनाश न हो ऐसा कहकर वसन्तमाला हाथसे हाथका सहारा देकर उसे शीघ्र ही गुफाके मुँहके पास ले आई। ( ३९ ) वहाँ पर उन्होंने समतल शिलातल पर सुखपूर्वक बैठे हुए, चारणलब्धि के अतिशय से युक्त, योग में भारूढ़ तथा निर्मोही एक श्रमणको देखा । (४०) भयसे रहित शरीरवाली तथा हाथ जोड़ी हुई वे दोनों मुनियोंमें श्रेष्ठ ऐसे उस मुनिको प्रणाम करके वहीं बैठ गईं । (४९) उसी समय ध्यानोपयोग सम्पूर्ण होने पर साधुने युवतियोंको 'धर्मलाभ' देकर पूछा कि तुम्हारा देश कौनसा है ? (४२) तब साधुको प्रणाम करके वसन्तमालाने वृत्तान्त कहा कि यह महेन्द्रकी पुत्री है और इसका नाम अंजना है । (४३) लोगों में गर्भके अपवादसे दूषित मानी गई पवनंजयकी इस पत्नीका बन्धुजनोंने परित्याग किया है और इसीलिए इसने इस वनमें प्रवेश किया | (४४) किसलिए यह अपने पति तथा सासकी द्वेष्या हुई है ? और किस कर्मके उदयसे बड़ाभारी दुःख सह रही ? (४५) हे महायश ! इसके गर्भ में कौन पुण्यहीन जीव पैदा हुआ है, जिसकी वजह से जीवन के बारेमें भी संदेह हो गया है ? (४६) तब त्रिज्ञानसे युक्त अमितगतिने परभवमें कृत कर्म के विषय में जैसा हुआ था वैसा, स्फुट एवं विशद रूपसे कहा । (४७) -
१. महिलं निययाड गेहाओ - प्रत्य० । २. रोवन्ति अञ्जणं - प्रत्य• । ३. बच्चामि — प्रत्य० । ४. साहुं - प्रत्य• ।
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