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________________ १६९ पउमचरियं [१७.१८अह सो वि दारवालो, सिलाकवाडो ति नाम गन्तूणं । तं चेव वयणनिहसं, महिन्दरायस्स साहेइ ॥ १८॥ नं दारवालएणं, सिट्ट दुहियागमं सअववायं । तं सोऊण महिन्दो, अहोमुहो लजिओ जाओ ॥ १९ ॥ रुद्रो पसन्नकित्ती. महिन्दपुत्तो तओ भणइ एवं । धाडेह पावकम्मा, बाला कुलदूसणी एसा ॥ २० ॥ नामेण महुच्छाहो, सामन्तो भणइ एव न य जुत्तं । दुहियाण होह सरणं, माया-वित्तं महिलियाणं ॥ २१ ॥ अञ्चन्तनिठुरा सा, केउ(कित्ति)मई लोयधम्मकयभावा । निद्दोसा एस पहू !, बाला निद्धाडिया तीए ॥ २२ ॥ भणइ य महिन्दराया, पुदि पि मए सुयं जहा एसा । पवणंजयस्स वेसा, तेण य गब्भस्स संदेहो ॥ २३ ॥ मा होहिइ अववाओ, मज्झं पि इमाएँ संकिलेसेणं । भणिओ य दारवालो, धाडेह लहु पुरवराओ ॥ २४ ॥ तो दारवालएणं, लद्धाएसेण अञ्जणा तुरियं । निद्धाडिया पुराओ, सहीऍ समयं परविएस ॥ २५ ॥ सुकुमालहत्थ-पाया, खरपत्थर-विसमकण्टइल्लणं । पन्थेण वच्चमाणी, अइगरुयपरिस्समावन्ना ॥ २६ ॥ जं जं सयणस्स घर, वच्चइ आवासयस्स कज्जेणं । तं तं वारेन्ति नरा, नरिन्दसंपेसिया सबं ॥ २७ ॥ एवं धाडिज्जन्ती, सवेण जणेण निरणुकम्पेणं । घोराडविं पविट्ठा, पुरिसाण वि जा भयं देइ ॥ २८ ॥ नाणाविहगिरिपउरा, नाणाविहपायवेहि संछन्ना । महई अणोरपारा, नाणाविहसावयाइण्णा ।। २९ ॥ वाया-ऽऽयवपरिसन्ना, तहाएँ छुहाएँ पीडियसरीरा । एगुद्देसम्मि ठिया, करेइ परिदेवणं बाला ॥ ३० ॥ अञ्जनायाः परिदेवनम् - हा कट्टं चिय पहया, विहिणा हं विविहदुक्खकारीणं । अणहेउवइरिएणं, के सरणं वो पवज्जामि ? ॥ ३१ ॥ भत्तारविरहियाणं, होइ पिया आलओ महिलियाणं । मह पुण पुण्णेहि विणा, सो वि हु वइरीसमो जाओ॥ ३२ ॥ (१७) इसके बाद शिलाकपाट नामके उस द्वारपालने जाकर महेन्द्र राजासे वह सारा समाचार कह सुनाया। (१८) द्वारपालका कहा गया अपनी पुत्रीका अपवादपूर्ण आगमन सुनकर महेन्द्रने लज्जित हो सिर झुका दिया । (१९) तब महेन्द्रका पुत्र प्रसन्नकीर्ति गुस्से में आकर कहने लगा कि कुलको कलंकित करनेवाली इस पापी लड़कीको बाहर निकाल दो। (२०) तब महोत्साह नामक एक सामन्तने कहा कि यह उचित नहीं है। पुत्री जैसी स्त्रियोंके लिये तो माता-पिता ही शरणरूप होते हैं। (२१) लौकिक धर्मका अनुसरण करनेवाली वह कोर्तिमती अत्यन्त निष्ठुर है। हे प्रभो! यह निर्दोष बाला उसके द्वारा बाहर निकाल दी गई है। (२२) इस पर महेन्द्र राजाने कहा कि पहले भी मैंने सुना था कि यह पवनंजयकी द्वेषभाजन है, अतः इसके गर्भके बारेमें सन्देह है। (२३) इस कलंकसे मेरी भी बेइज्जती न हो, ऐसा समझकर उसने द्वारपालसे कहा कि नगरमेंसे इसे जल्दी बाहर निकाल दो। (२४) तब आदेशप्राप्त द्वारपालने सखीके साथ अंजनासुन्दरीको तुरंत ही नगरमेंसे बाहर परदेशमें निकाल दिया । (२५) सुकुमार हाथ-पैरवाली उसे तीक्ष्ण पत्थर और काँटोंसे व्याप्त विषम मार्गसे जाने पर अति भारी परिश्रम पड़ता था । (२६) आवासके लिए जिस जिस स्वजनके घर वह जाती थी उस-उसको-सबको राजाके द्वारा भेजे गये पुरुष रोकते थे। (२७) इस प्रकार सब निर्दय लोगोंके द्वारा निष्कासित उसने ऐसे घोर वनमें प्रवेश किया जो पुरुषोंके लिए भी भयानक था । (२८) वह जंगल अनेक प्रकारके पर्वतोंसे व्याप्त था, नानाविध वृक्षोंसे वह छाया हुआ था, वह बहुत बड़ा और अतिविस्तृत था तथा अनेक प्रकारके जंगली पशुओंसे भरा हुआ था। (२९) पवन और धूपसे पीड़ित तथा भूख एवं प्याससे दुःखित शरीरवाली वह एक स्थान पर ठहरकर रोने लगी कि अफसोस है! अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले और निष्कारण वैरी विधाताने मुझ पर प्रहार किया है। किसकी शरण प्राप्त करूँ ? (३०-३१) पतिसे रहित महिलाओंकी शरण पिता होते हैं। पुण्यसे विरहित मेरे लिए तो वे भी शत्रुके जैसे हो गये हैं। (३२) जब तक स्त्री अपने पतिके घरसे नहीं निकाली जाती तब तक ही माता, पिता एवं बन्धुजनोंके हृदयमें १. पावकम्मं वालं-प्रत्य०। २. पवका-प्रत्य.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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