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________________ १६७ १७. १७] १७. अंजणाणिव्वासण-हणुयउप्पत्तिअहियारो एएहि लक्खणेहिं, मुणिया पवणंजयस्स जणणीए । भणिया य नायगब्भा, पावे ! कन्ते पउन्थम्मि ॥ ३ ॥ काऊण सिरपणाम, कहेइ पवणंजयागमं सबं । मुद्दा य पच्चयर्थ, तह वि य न पसज्जई सासू ॥ ४ ॥ भणइ तओ 'कित्तिमई, जो न वि नामं पि गेव्हई तुझं । सो किह दूरपवासं, गन्तूण पुणो नियत्तेइ ? ॥ ५ ॥ धिद्धि ! ति दुट्ठसीले!, निययकुलं निम्मलं कयं मलिणं । लोगम्मि गरहणिज्जं, एरिसकम्मं जणन्तीए ॥ ६ ॥ एवं बहुप्पयारं, उवलम्भेऊण तत्थ कित्तिमई । आणवइ कम्मकार, नेह इमं पियहरं सिग्घं ॥ ७ ॥ लद्धाएसेण तओ, समयं सहियाएँ अञ्जणा तुरियं । जाणम्मि समारूढा, महिन्दनयरामुहं नीया ॥ ८ ॥ संपत्ता य खणेणं, पावो मोत्तण पुरवरासन्ने । खामेऊण नियत्तो, ताव य अत्थंगओ सूरो ॥ ९ ॥ जाए तमन्धयारे, बाला परिदेविऊण आढत्ता । हाहक्कारमुहरवा, दस वि दिसाओ पलोयन्ती ॥ १० ॥ भणइ य वसन्तमाले !, पावं अइदारुणं पुराचिण्णं । जेणेस अयसपडहो, पुहइयले ताडिओ मज्झं ॥ ११ ॥ एक चिय नाव न वी, दुक्खं वोलेइ जणियपियविरहं । ताव य उवट्टियं मे, बीयं अववायसंबन्धं ॥ १२ ॥ किं मज्झ पयावइणा, इमं सरीरं अलद्धसुहसायं । बहुदुक्खसन्निहाणं, जाणन्तेणेव निम्मवियं ! ॥ १३ ॥ भणइ य वसन्तमाला. बाले ! किं विलविएण रणम्मि ? । पुवकयं निम्मायं, अणुहवियचं अविमणाए ॥ १४ ॥ कयपल्लवोवहाणे, वसन्तमालाएँ विरइए सयणे । सुवइ खणलद्धनिद्दा, पडिया चिन्तासमुद्दम्मि ॥ १५ ॥ सूरुग्गमम्मि तो सा, सही समयं कुलोचियं नयरं । पविसन्ती दीणमुही, पडिरुद्धा दारवालेणं ॥ १६ ॥ पडिपुच्छियाएँ सिटुं, वसन्तमालाएँ दारवालस्स । पवणंजयमाईयं, सचं चिय अञ्जणागमणं ॥ १७ ॥ सुन्दर प्रतीत होनेवाली उसकी गति मन्द हो गई । (२) पवनंजयकी माताने इन लक्षणोंसे जानकर कहा कि हे पापी! पतिके बाहर जाने पर भी गर्भवती हुई हो। (३) सिरसे प्रणाम करके पवनंजयके आगमनका सर्व वृत्तान्त उसने कह सुनाया और साक्षीके तौर पर मुद्रिवा भी दिखलाई, तथापि सासको विश्वास नहीं हुआ। (४) तब कीर्तिमतोने कहा कि जो तेरा नाम भी नहीं लेता था वह दूर प्रवासमें जाकर कैसे वापस लौट सकता है ? (4) हे दुष्टशीले ! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है। लोकमें निन्दित ऐसा कर्म करके तूने अपना निर्मल कुल कलंकित किया है। (६) इस तरह अनेक प्रकारसे उसे बुराभला कहकर कीर्तिमतीने नौकरको आज्ञा दी कि इसे जल्दी ही इसके मायके ले जाओ। (७) तब आशा मिलने पर अंजना अपनी सखीके साथ जल्दी ही सवारीमें जा बैठी। वह महेन्द्रनगरकी ओर ले जाई गई। (८) थोड़ी ही देरमें वह वहाँ पहुँच गई। नगरके समीप वह पापी नौकर उसे छोड़कर और क्षमा माँगकर लौटा। उस समय सूर्य भी अस्त हो गया । (९) रातका अन्धकार फैल जाने पर दसों दिशाओं में नजर घुमाती हुई वह मुंहसे हाहाकार ध्वनि करती हुई रोने लगी और कहने लगी कि, हे वसन्तमाले ! पहले मैंने अतिभयंकर पाप किया है जिससे ऐसा अयशका ढोल मेरे लिए दुनियाँ में बजाया गया है । (१०-११) प्रियके विरहसे उत्पन्न एक दुःख भी अभी पूरा नहीं होता वहाँ तो अपयश सम्बन्धी दूसरा दुःख मेरे लिए हाज़िर हो गया है। (१२) प्रजापति ब्रह्माने सुख और शान्ति न पानेवाले और अनेक दुःखोंके आधाररूर मेरे इस शरीरको क्या जानकर बनाया होगा ? (१३) इस प्रकार विलाप करती हुई अंजनासे बसन्तमालाने कहा कि, हे बाले! इस अरण्यमें विलाप करनेसे क्या फायदा? पहले किये हुए का फल मनमें खिन्न हुए बिना अनुभव करना चाहिए । (१४) जिसमें पत्तोंका सिरहाना बनाया गया है ऐसी बसन्तमाला द्वारा निर्मित शय्यामें चिन्ता-समद में डबी हई अंजना नींद आने पर क्षण भरके लिए सो गई। (१५) सूर्योदय होने पर सखोके साथ अपने कुलोचित नगरमें प्रवेश करने पर दीनमुखी वह द्वारपाल द्वारा गेकी गई। (१६) द्वारपाल द्वारा पूछनेपर वसन्तमालाने पवनंजयसे लेकर अंजनाके आगमनका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। १-२ केउमई-मुः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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