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________________ १६६ पउमचरियं [१६.८०सुरतूसवे समत्ते, दोणि वि खेयालसङ्गमङ्गाई । अन्नोन्नभुयालिङ्गण-सुहेण निदं पवन्नाई ॥ ८० ॥ एवं कमेण ताणं, सुरयसुहासायलद्धनिद्दाणं । किंचावसेससमया, ताव य रयणी खयं पत्ता ॥ ८१ ॥ रयणीमुहपडिबुद्धो, पवणगई भणइ पहसिओ मित्तो । उट्टेहि लहु सुपुरिस !, खन्धावार पगच्छामो ॥ ८२ ॥ सुणिऊण मित्तवयणं, सयणाओ उढिओ पवणवेगो । उवगूहिऊण कन्तं, भणइ य बयणं निसामेहि ॥ ८३ ॥ अच्छ तुर्म वीसत्था, मा उबेयस्स देहि अत्ताणं । जाव अहं दहवयणं, दळूण लह नियत्तामि ॥ ८४ ॥ तो विरहदक्खभीया. चलणपणामं करेइ विणएणं । मम्मण-महुरुल्लावा, भणइ य पवर्णजयं बाला ॥८५॥ अज चिय उदुसमओ, सामिय ! गम्भो कयाइ उयरम्मि । होही वयणिज्जयरो, नियमेण तुमे परोक्खेणं ॥ ८६ ॥ तम्हा कहेहि गन्तुं, गुरूण गब्भस्स संभवं एयं । होहि बहुदीहपेही, करेहि दोसस्स परिहारं ॥ ८७ ॥ अह भणइ पवणवेगो. मह नामामुदियं रयणचित्तं । गेण्हसु मियङ्कवयणे!. एसा दोसं पणासिहिह ॥ ८८॥ आपुच्छिऊण कन्ता, वसन्तमाला य गयणमग्गेणं । निययं निवेसभवणं, पहसिय-पवणंजया पत्ता ॥ ८९ ॥ धम्मा-ऽधम्मविवागं. संजोग- विओग-सोग-सुहभावं । नाऊण जीवलोए, विमले जिणसासणे समुज्जमह सया ॥ ९० ॥ ॥ इय पउमचरिए पवणंजयअञ्जणासुन्दरीभोगविहाणो नाम सोलसमो उद्देसओ समत्तो।। १७. अंजणाणिवासण-हणुयउप्पत्तिअहियारो केत्तियमेत्ते वि गए, काले गम्भप्पयासया बहवे । जाया विविहविसेसा, महिन्दतणयाएँ देहम्भि ॥ १ ॥ पीणुन्नया य थणया, सामलवयणा कडी य वित्थिण्णा । गब्भभरभारकन्ता, गई य मन्दं समुबहइ ॥ २॥ मनको सन्तोष हो इस प्रकार जिसमें यथेच्छ रंजन किया गया है ऐसा वह सुरतोत्सव था। (७९) सुरतोत्सव समाप्त होनेपर खेद एवं आलस्यसे युक्त अंगवाले वे दोनों एक दूसरेकी भुजाओंके आलिंगन सुखमें लीन हो सो गये । (८०) इस प्रकार सुरतसुखके आस्वाद के बाद सोये हुए उनकी रात, जिसमें थोड़ा ही समय बाकी रहा था, बीत गई । (८१) प्रातःकालमें जगे हुए मित्र प्रहसितने पवनगतिसे कहा कि, हे सुपुरुष ! जल्दी. उठो। छावनीकी ओर प्रयाण करें। (८२) मित्रका वचन सुनकर पवनवेग शय्यामेंसे उठ खड़ा हुआ और पत्नीको आलिंगन करके कहा कि मेरा कहना सुनो । (८३) जबतक मैं रावणका दर्शन करके शीघ्र हो वापस आता हूँ तबतक तुम विश्वस्त होकर यहाँ रहो और मनमें उद्वेग मत धारण करो। (४) तब विरहदुःखसे भीत उस बालाने विनयपूर्वक चरणों में प्रणाम करके प्रेमपूर्ण और मधुर स्वरमें पवनंजयसे कहा कि, हे नाथ ! आज ऋतुकालमें शायद उदरमें गर्भ रहा हो। निश्चय ही तुम (लोगोंकी दृष्टिमें) परोक्ष हो, अतः वह मेरे लिए निन्दनीय ही होगा। (८५-६) अतः गुरुजनोंके पास जाकर इस गर्भकी सम्भावनाके बारेमें कहो । बहुत दूरकी बात देखनेवाले बनो अर्थात् दीर्घदृष्टि बनो और दोषका परिहार करो। (८७) इसपर पवनवेगने कहा कि, हे चन्द्रमुखी ! तुम मेरे नामसे अंकित यह रत्नखचित मुद्रिका लो । यह दोषका नाश करेगी । (८८) पत्नी तथा वसन्तमालाको पूछकर और गगनमार्गसे प्रयाण करके प्रहसित एवं पवनंजय अपने पड़ावके भवनमें आ पहुँचे । (८९) धर्म एवं अधर्मके फलस्वरूप संयोग एवं वियोग तथा सुख एवं दुःख इस जीवलोकमें होते हैं ऐसा जानकर विमल जिनशासनमें तुम उद्यमशील बनो । (९०)। । पद्मचरितमें पवनंजय-अंजनासुन्दरीका भोगविधान नामक सोलहवाँ उद्देश समाप्त हुआ । १७. अञ्जनाका निर्वासन और हनुमानका जन्म कुछ समय व्यतीत होनेके अनन्तर महेन्द्रतनया अंजनासुन्दरीके शरीरमें गर्भके सूचक अनेक प्रकारके विशिष्ट चिह्न उत्पन्न हुए । (१) उसके स्तन मोटे और ऊँचे हुए, मुँह श्याम पड़ गया और कमर फैल गई। गर्भके भारसे १. पवणगई-प्रत्य.। २. कंतं वसन्तमालं च-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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